कभी रकीब तो कभी मतलबी यार हुए।
लिबास की तरह अब के किरदार हुए।
न ही रंग है कोई, न खुशबू के आसार है,
हदे निगाह कागज के ही गुलजार हुए।
फिरते है रावण यहां,राम की सूरत लिए,
इन्सानियत के रिश्ते भी तार तार हुए।
कल शब एक हसीं ख्याल से रुबरु हुए,
बेकली के हर लम्हें अहदे बहार हुए।
तरक्की की राह में काट डाले है शजर,
कितने झूठे तरक्की के इश्तहार हुए।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”