परंपरा
“नारायण, नारायण! प्रभु! आपके स्मरण करते ही मैं चला आया।”
“किसे स्मरण करता ब्रह्मर्षि नारद! आग आप ही की लगाई हुई है। कोई तगड़ी सजा सुनाऊँ, इच्छा होती है।”
“मैंने ऐसा क्या कर दिया प्रभु? अपराध बताइए, तत्पश्चात सजा!”
“मृत्युलोक में झाँकिए, समझ जाएँगे।”
“परंतु मेरा सुझाव परेशानियाँ तिरोहित करने को था न कि वृद्धि हेतु!”
“उसने क्या हाल किया है मृत्युलोक का, देख रहे हैं न? ऐसे विकट आचरण की उम्मीद नहीं थी मुझे। बड़े-बूढ़ों के जीवन में कदाचित पहले से भी अधिक विष घुल गया। जो बड़े-बूढ़े बाल-बच्चों के विवाह के बीस-पच्चीस वर्ष पश्चात उत्तरोत्तर बढ़ते पारिवारिक अनबन या अशक्त होने पर उनकी सेवा के भय से वृद्धाश्रम भेजे जाते थे, अब बच्चों के गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के साल-दो साल में ही लकुटी-कमलिया के साथ निष्कासित किए जा रहे हैं। बुजुर्गों की दर्दभरी प्रार्थनाओं एवं ध्वनित घंटा घड़ियालों से बचने हेतु मैंने जो राह चुनी, बड़ी दुर्गम निकली। घड़ी भर भी पलकें नहीं मूँद पाता। प्रार्थनाओं में दर्द और विकलता बढ़ती जा रही है, क्या करूँ?”
“प्रभु! शतरंज की गोटियों को यथास्थान पहुँचा दीजिए। विवाह के उपरांत लड़कियों की जगह लड़कों की विदाई की रस्म शुरू हुई थी। पर लोगबाग बहुओं के स्थान पर जमाई से अधिक त्रस्त एवं प्रताड़ित हुए। पराए घर में संयोजन टेढ़ी खीर होती है, जो लड़कियाँ ही कर सकती हैं। नई अवधारणा जन्मी कि पूर्वावस्था लाख गुणी अच्छी थी। आँखों का तारा लगने वाले बेटे, जमाई के रूप में लोगों को आँखों की किरकिरी लगे।
पुराने नियम पुन: लागू कीजिए। सहमा हुआ इंसान कुछ पीढ़ियों तक चुप रहेगा, आगे देखी जाएगी। मृत्युलोक के राजनीतिज्ञों, आप ही की कृति हैं, से सीखिये। सुविधानुसार अपनी कही बात, दल, प्रचलन, सब बदलते रहते हैं। आपको भी देवलोक में अपनी सत्ता बचानी है, अतः अनुकरण करें।”
प्रभु को चिंतन की अवस्था में छोड़कर मुस्कराते नारायण-नारायण जपते नारद जी अंतर्ध्यान हो गए।
— नीना सिन्हा