कविता

चौराहे पर लगी प्रतिमा

चौराहे पर लगी प्रतिमा
कितनी सजीव सी लगती है,
मानो दर्द भरी आंखों से
चहुंओर सबको निहारती है।
चेहरे पर इतना नूर गर्व से
ऊंचा ललाट दमकता है,
लवों की दो पंक्तियां ऐसी जो
बोल पड़ने को आतुर लगती है।
चौराहे पर लगी प्रतिमा
कितनी सजीव सी लगती है,
सहकर दर्द भरी आह वयां
करने को आकुल लगती है।
कितनी हथौड़े की चोटें छैनी
से तराशने का दर्द सहती है,
तोड़े-घिसे जाते पत्थरों से
तब नव रूप लेती है।
चौराहे पर लगी प्रतिमा
कितनी सजीव सी लगती है,
दाद देनी होगी कलाकारों की

जिनकी कलाकृति दिखती है।
एक पाषाण को चुन काट
तराशकर नव रूप देते हैं,
सुंदर सजीला त्रुटि रहित
नाम जिसका देते हैं।
चौराहे पर लगी प्रतिमा
कितनी सजीव सी लगती है,
सोचो उस पत्थर का दर्द
कितने प्रहारों से गुजरता है।
हर प्रहार पर सिसकियां
भर-भर मौन दर्द सहता है,
पर इतने प्रहारों के सह
सजीले भाग्य पर इठलाता है।
चौराहे पर लगी प्रतिमा
कितनी सजीव सी लगती है
निष्प्राण पत्थर की प्रतिमा
सदा संघर्ष करना सिखाती है
सुख-दुख संघर्ष के भंवर से
उबर आत्मा निखर जाती है
अलका संघर्ष करके सब
संभव कर जाती है
चौराहे पर लगी प्रतिमा
कितनी संजीव सी लगती है,
मानो दर्द भरी आंखों से
चहुंओर सबको निहारती है।

— अलका गुप्ता प्रियदर्शिनी

अलका गुप्ता प्रियदर्शिनी

लखनऊ-उत्तरप्रदेश 7408160607