लघुकथा

रक्षा_सूत्र

“भाई दूज का टीका भी और रक्षाबंधन की राखी भी! मामला क्या है रेवा? दोगुने उपहार लेने का इरादा है क्या?” शशांक ने फिरकी ली।

“क्या भैया!” ठुनकते हुए रेवा बोली, “मैंने किसी तोहफे की फरमाइश की है कभी? आप लोगों का प्यार मुझे मायके खींच लाता है। ढेर सारा वक्त था मेरे पास, पर मुई  नौकरी वह भी खा गई। रक्षाबंधन में नहीं आई थी, भरपाई कर दी। क्या बुरा किया।”

“तू जैसे खुश रहे, बहना!”

मोबाइल के बजने से बातों का तारतम्य टूटा, बहन जँवाई का फोन था। रेवा बातें करते बाहर निकल गई। दूर से ही पीछा करती भाई की नजरों ने बहन का तनाव पढ़ लिया।

रेवा वापस आकर बोली, “भैया! कल का टिकट करा देना।”

“मेरी हड़बड़िया बहन! तड़के ही तो आई है, दो-चार दिन बाद जाना”, शशांक उलझन भरे स्वर में बोला।

“जब तक यहाँ रहूँगी, इनके फोन बार-बार आते रहेंगे।”

“मसला क्या है, बताएगी? मेरे कानों में कुछ पड़ा था पर कान लगाकर पूरी बात तो नहीं सुन सकता था न।”

“उनके खटराग पर मैंने ध्यान देना ही बंद कर दिया है।”

“बगीचे में चल! बैठते हैं, मिलकर हल निकालेंगे।”

लाॅन की कुर्सी पर बैठकर रेवा बोली, “भैया! वे दादा जी की इस पुश्तैनी कोठी में हिस्सा चाहते हैं।”

“तेरी भाभी से बात करूँ?”

“भैया! आपके जोर डालने पर आपको बता दिया। पर माँ-पापा, भाभी किसी को न बताएँ! प्रार्थना है मेरी। शादी के समय, सुपुत्र के बीडीओ होने की ठसक दिखाकर ससुराल वाले पापा से तगड़ी वसूली कर चुके हैं। अब यहाँ का सबकुछ आपका-भाभी का है। कुल-खानदान की जिम्मेदारियाँ आपने बखूबी उठा रखी हैं। मैं चाहकर भी कुछ कर मदद नहीं कर पाती।”

“रेवा! तू आर्थिक संकट से जूझ रही है?”

“इन्होंने बेवकूफियों में सब गँवा दिया। नौकरी छोड़कर विधायक का चुनाव लड़ा, एक नहीं, दो-दो बार। बेतहाशा खर्च किया, फिर भी जमानत जब्त। जमा पूँजी स्वाहा हो गई, पुश्तैनी संपत्ति घर खर्च के लिए बिकने लगी। इनको कोई काम मिलने तक मैंने नौकरी कर ली है। परिस्थितियाँ सुधरेंगी।”

“नहीं सुधरी तो?”

“तब की तब देखेंगे, भैया! आप से ही कर्ज लूँगी, पर कोठी मायके-ससुराल की साझा संपत्ति नहीं बनने दूँगी, शांति भंग हो जाएगी। आपकी दुलारी बहन बनकर आना चाहती हूँ, गोतिया (हिस्सेदार) बनकर नहीं”, भावनाएँ आँसू बनकर छलक आईं।

“समझ में बड़ी है तू मुझसे ! रक्षासूत्र मुझसे बँधवा ले। विपरीत परिस्थितियों में भावनाओं को पृथक रख दोनों परिवारों के लिए सही फैसले करने में सक्षम है।”, शशांक का स्वर रुँध गया।

— नीना सिन्हा

नीना सिन्हा

जन्मतिथि : 29 अप्रैल जन्मस्थान : पटना, बिहार शिक्षा- पटना साइंस कॉलेज, पटना विश्वविद्यालय से जंतु विज्ञान में स्नातकोत्तर। साहित्य संबंधित-पिछले दो वर्षों से देश के समाचार पत्रों एवं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लघुकथायें अनवरत प्रकाशित, जैसे वीणा, कथाबिंब, सोच-विचार पत्रिका, विश्व गाथा पत्रिका- गुजरात, पुरवाई-यूके , प्रणाम पर्यटन, साहित्यांजलि प्रभा- प्रयागराज, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस-मथुरा, सुरभि सलोनी- मुंबई, अरण्य वाणी-पलामू,झारखंड, ,आलोक पर्व, सच की दस्तक, प्रखर गूँज साहित्य नामा, संगिनी- गुजरात, समयानुकूल-उत्तर प्रदेश, शबरी - तमिलनाडु, भाग्य दर्पण- लखीमपुर खीरी, मुस्कान पत्रिका- मुंबई, पंखुरी- उत्तराखंड, नव साहित्य त्रिवेणी- कोलकाता, हिंदी अब्राड, हम हिंदुस्तानी-यूएसए, मधुरिमा, रूपायन, साहित्यिक पुनर्नवा भोपाल, पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका, डेली हिंदी मिलाप-हैदराबाद, हरिभूमि-रोहतक, दैनिक भास्कर-सतना, दैनिक जनवाणी- मेरठ, साहित्य सांदीपनि- उज्जैन ,इत्यादि। वर्तमान पता: श्री अशोक कुमार, ई-3/101, अक्षरा स्विस कोर्ट 105-106, नबलिया पारा रोड बारिशा, कोलकाता - 700008 पश्चिम बंगाल ई-मेल : [email protected] व्हाट्सएप नंबर : 6290273367