आज हम एक ऐसी महिला खिलाड़ी के जीवन की कहानी सुना रहे हैं, जिन्होंने टोकियो ओलंपिक में वेटलिफ्टिंग में भारत को सिल्वर मेडल दिलवाया। इस अद्भुद खिलाड़ी का नाम है मीराबाई चानू।
मीराबाई चानू का जन्म 8 अगस्त 1994 में मणिपुर के एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनका गाँव मणिपुर की राजधानी इंफाल से सौ किलोमीटर की दूरी पर है।उनके गाँव में गैस चूल्हे की सुविधा नहीं है। उनके घर में लकड़ियाँ जलाकर खाना बनता है। वह अपने गाँव से बहुत दूर किसी जंगल से लकड़ी काटकर अपने घर ले आया करती थी। एक बार जब वह अपने भाई के साथ जंगल से लकड़ी काटकर अपने घर ला रही थी, तो उनके भाई ने देखा, कि वह अपने सिर पर कई किलो की लकड़ियों का भार आसानी से उठाकर ले जा रही हैं। उनके भाई को बहुत अधिक आश्चर्य हुआ और उसने उन्हें वेटलिफ्टिंग में जाने के लिए प्रेरित किया। एक बेहद ही साधारण परिवार में पैदा होने वाली लड़की मीराबाई चानू आज उस मुकाम पर पहुँच गई, जहाँ पहुँचने का सपना हर खिलाड़ी का होता है।किंतु इस मुकाम को प्राप्त करने के लिए उन्होंने बहुत संघर्ष किया।क्योंकि मीराबाई चानू के गाँव में कोई ट्रेनिंग सेंटर भी नहीं था। वह अपने गाँव से 50 किलोमीटर दूर प्रशिक्षण के लिए जाया करती थीं जब वे अपने गाँव में थी, तब भी उन्होंने बाँस की मदद से वेटलिफ्टिंग का अभ्यास किया।
मीराबाई चानू जब स्कूल में थीं, तो उन्होंने वेटलिफ्टर कुंजरानी के बारे में एक किताब में पढ़ा था, कुंजरानी भी इंफाल की थी, जिन्होंने वेटलिफ्टिंग से ओलंपिक तक का सफर तय किया है। कुंज रानी की कहानी से मीराबाई को बहुत ज्यादा प्रेरणा मिली, और उन्होंने भी वेटलिफ्टर बनने का निर्णय किया। रियो ओलंपिक 2016 में मीराबाई चानू के हाथ-पैर बिल्कुल बर्फ़ हो गए,वह वज़न नहीं उठा पाईं।उन्हें ” Do Not complete” कहा गया।
इस असफलता ने मीराबाई चानू को निराश अवश्य किया,किंतु खेल के प्रति उनकी लगन कम नहीं हुईं। इसी लगन और जज़्बे ने उन्हें टोकियो ओलंपिक में बड़ी जीत दिलाई। वह जब भी कभी विदेश में घूमने जातीं हैं, हमेशा अपने साथ भारत की मिट्टी और चावल रखतीं हैं। इससे उनकी देशभक्ति प्रर्दशित होती है। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि यदि किसी कार्य को करने की लगन हो तो कुछ भी असंभव नहीं है।इसलिए कहा जाता है-
“तूफानों से डरकर नैया पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती”
— प्रीति चौधरी