‘नवगीत वाङ्मय’ : कविता के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण संकलन — राजा अवस्थी
[पुस्तक : नवगीत वाङ्मय, संपादक : अवनीश सिंह चौहान, प्रकाशक : आथर्सप्रेस, नई दिल्ली,
प्रकाशन वर्ष : 2021 (संस्करण प्रथम, पेपर बैक), पृष्ठ : 174, मूल्य रु 350/-]
हिंदी कविता के इतिहास में समवेत संकलनों की एक परंपरा अब स्थापित हो चुकी है। ये समवेत संकलन कभी कुछ सहयोगी मित्रों की कविताओं को साथ लेकर, कभी अपने शहर, क्षेत्र या प्रान्त के कवियों की रचनाओं को समेटने के लिए प्रकाशित किए-कराये गये। यह सब किसी न किसी दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, किंतु कुछ काम इस दिशा में ऐतिहासिक महत्व के भी प्रमाणित हुए हैं। ऐतिहासिक महत्व के ऐसे समवेत संकलन या तो अपने समय की किसी विशिष्ट काव्यधारा के कवियों की कविताओं के बहाने नई पनपी काव्य-प्रवृत्तियों को पहचानने, स्थापित करने या स्थायित्व प्रदान करने के साथ स्वयं को एक नेतृत्वकारी भूमिका में स्थापित करने की दृष्टि से भी प्रकाशित किये-कराए गये। ऐसे समवेत संकलनों की पड़ताल पर जाएँ, तो यह परंपरा अज्ञेय के ‘तार सप्तक’ से शुरू होकर डा शम्भुनाथ सिंह के द्वारा संपादित नवगीत दशकों (नवगीत दशक- 1, नवगीत दशक-2, नवगीत दशक-3) एवं ‘नवगीत अर्द्धशती’ से होती हुई ‘श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन’ (संपादक- कन्हैयालाल नंदन), ‘नई सदी के नवगीत’- पाँच खंड (संपादक- ओमप्रकाश सिंह) तक किसी विशिष्ट उद्देश्य के साथ चली आती दिखाई देती है। यद्यपि इस दिशा में ‘गीत वसुधा’ (संपादक- नचिकेता), ‘समकालीन गीत कोश’ (संपादक- नचिकेता), ‘नवगीत-नई दस्तकें’, (संपादक- निर्मल शुक्ल), ‘नवगीत का सौंदर्य बोध’ (संपादक- राधेश्याम बंधु) आदि के काम भी उल्लेखनीय, किन्तु ये सब सम्पूर्ण नवगीत कविता को एक साथ लाने के सिवा किसी विशेष उद्देश्य को केंद्र में नहीं रख पाते और सबको तथा सब कुछ समेटने की लालसा ने इन्हें बड़ा और मोटा ग्रंथ तो बना दिया, किंतु इनकी यह स्थूलता वह नहीं कर पाई, जिसकी इनसे आशा थी। इस दिशा में महत्वपूर्ण काम डॉ रणजीत पटेल का है, जो उन्होंने बिहार के गीत कवियों को केंद्र में रखकर संपादित किया है; यद्यपि बड़े फलक पर ‘सहयात्री समय के’ शीर्षक से भी इन्होंने एक उल्लेखनीय समवेत संकलन का संपादन किया है। इन सभी समवेत संकलनों में जो अधिक महत्वपूर्ण दिखाई देता है वह है संपादकों के द्वारा इनकी भूमिका के रूप में लिखे गये आलेख, जिनमें नवगीत कविता की पूरी यात्रा को समझने का और आलोचनात्मक स्थापना देने का महत्वपूर्ण काम किया गया है। इस दृष्टि से नचिकेता और डॉ ओमप्रकाश सिंह की भूमिकाएँ महत्वपूर्ण हैं।
इतनी रामायण बाँचने से स्वयं को न रोक पाने के मूल में समवेत संकलन की समृद्ध परंपरा में डॉ अवनीश सिंह चौहान के संपादन में आथर्स प्रेस से हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘नवगीत वाङ्मय’ का मेरे सामने होना है। 173 पृष्ठों के इस समवेत संचयन में हिंदी कविता साहित्य की प्रमुख विधा नवगीत कविता के प्रारंभ से लेकर अब तक के लेखन को मात्र 12 नवगीत कवियों के माध्यम से समेटने का प्रयास किया गया है। इस पुस्तक को संपादक ने चार खंडों में वर्गीकृत किया है। प्रथम खंड- ‘समारंभ’, जिसमें डॉ शंभुनाथ सिंह, डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया और डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह को शामिल किया गया है। दूसरे खंड ‘नवरंग’ में नवगीत कविता साहित्य के नौ महत्वपूर्ण कवि- गुलाब सिंह, मयंक श्रीवास्तव, शांति सुमन, राम सेंगर और नचिकेता के साथ नवगीत कविता सृजन के साथ ‘धार पर हम’ (दो भागों में) समवेत नवगीत संकलन का संपादन करने वाले वीरेंद्र आस्तिक, नवगीत कविता की मंचीय काव्य-धारा के प्रमुख कवि बुद्धिनाथ मिश्र और एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत ध्रुवों पर ठहरने वाले दो कवि- विनय भदौरिया और रमाकांत को शामिल किया गया है। इस तरह सन 1916 में जन्मे डॉ शंभुनाथ सिंह से लेकर 1964 में जन्मे रमाकांत तक के नवगीतों को लिया गया है।
‘नवगीत वाङ्मय’ शीर्षक इस ग्रंथ को महत्वपूर्ण बनाने में सम्मिलित नवगीत कविताओं के साथ बहुत बड़ी भूमिका दिनेश सिंह जी के आलेख ‘गीत की संघर्षजयी चेतना’ की भी है। यह आलेख पुस्तक के तीसरे खंड ‘अथबोध’ में चौथे खण्ड में डॉ मधुसूदन साहा के अवनीश जी के द्वारा लिए गए सारगर्भित साक्षात्कार से ठीक पहले रखा गया है। यह आलेख ‘नवगीत कविता’ और उसकी आलोचना को कई-कई कोणों से खोलता है। आलोचना के सूत्र रचता है। गद्य कविता के सापेक्ष नवगीत कविता को देखता है। इस तरह यह आलेख एक अलग और स्वतंत्र विमर्श की माँग करता है।
पुस्तक हाथ में आते ही जो चीज सबसे पहले आकर्षित करती है, वह है इस किताब का शीर्षक ‘नवगीत वाङ्मय’। बहुत बड़ा शीर्षक ले लिया है अवनीश जी ने। प्रथमतया इसे देखकर या सुनकर ऐसा लगता है, जैसे यह समग्र नवगीत कविता को समेटने वाला ग्रंथ होगा, किंतु जब किताब सामने आती है, तो यह चिंता में डाल देती है। यह संपादक के लिए भी चिंतित होने की बात हो सकती है? चिंतित होने की बात इसलिए कि यदि इसे आगे शृंखलाबद्ध रूप में लाकर समग्र नवगीत कविता को नहीं समेटा गया, तो एक बहुत बड़ा शीर्षक जाया हो जाएगा। यद्यपि अवनीश सिंह चौहान बहुत समर्थ, प्रतिभाशाली और सक्रिय रचनाधर्मी संपादक हैं। वह यह कर भी लेंगे और पाठकों व शोधार्थियों को भी इसकी प्रतीक्षा रहेगी।
‘नवगीत वाङ्मय’ शीर्षक की इस किताब में अवनीश जी के संपादकीय कौशल को भी देखा जा सकता है। एक तो उन्होंने सभी रचनाकारों को उनकी जन्मतिथि के अनुसार क्रम दिया है। किसी तरह के विवाद से बचने का यही आसान तरीका भी है। पुस्तक के प्रथम खण्ड ‘समारंभ’ में तीन नवगीत कवियों की तीन-तीन नवगीत कवितायें, तो दूसरे खण्ड ‘नवरंग’ में नौ नवगीत कवियों की नौ-नौ नवगीत कवितायें शामिल की हैं। शामिल की गई ये कवितायें कवि की रचना-दृष्टि के साथ संपादक की वैचारिक और काव्य-दृष्टि के संकेत देती हैं, संपादक के निरपेक्ष और तटस्थ रहने के किसी दावे के बावजूद (यद्यपि पुस्तक की सम्पादकीय में ऐसा कोई दावा नहीं किया गया है)। आशय यह कि नवगीत कविता भी अपने सर्वांश में किसी वाद, मत, विचारधारा आदि के प्रति विराग भाव की घोषणा करती है। किन्तु, मनुष्य और मनुष्यता के कल्याण व उसकी वाणी बनने के प्रति प्रतिबद्धता किसी भी तरह की कला के मूल में होती है। नवगीत कविता की इस दृष्टि की पक्षधरता के कारण संपादक ने जीवन-स्थितियों के ऐसे नवगीत चुने हैं, जिनमें जीवन का संघर्ष है, विषमताओं और संताप से भरे क्षणों में भी जीवन और संबंधों के प्रति अनुराग और उम्मीद भरते चित्र हैं। इन चित्रों में पेड़, नदी, खेत, कोपल सभी कुछ है।
इस किताब में जो पहली रचना है, वह डॉ शंभुनाथ सिंह का चर्चित नवगीत- ‘सोन हँसी हँसते हैं लोग/ हँस-हँसकर डसते हैं लोग’ है और ‘नवरंग खण्ड के अंतिम कवि रमाकांत की अंतिम रचना- ‘बदलेंगे दिन’ किताब का अंतिम नवगीत है। शंभुनाथ सिंह जी के नवगीत में जहाँ मनुष्य की छद्मवृत्ति को दिखाया गया है, वहीं रमाकांत के नवगीतों में हार-थकन के बावजूद जीवन संघर्ष करते हुए पतझड़ के बीत जाने की आहट भी है। उम्मीद भी है। देखें-
साँझ हुई/ हम हारे-थके/ नीड़ को आये
दाना-पानी/ यहाँ-वहाँ खोजा-बीना
छीना-झपटी/ हर पग पर मुश्किल जीना
लड़ते रहे/ कवच अपना/ मजबूत बनाये
…
देखो, रुको!/ समय का पतझड़/ बीता जाये।
‘समारंभ’ खण्ड में नवगीत कविता की अब तक की काव्य-प्रवृत्तियों और कथ्य-दृष्टि में आया हुआ अंतर दिखाते हुए इन रचनाओं के साथ सभी काव्य-विधाओं के सापेक्ष नवगीत कविता के भी हर दौर में आदिम रागबोध, निकट उपलब्ध प्राकृतिक उपादानों के प्रति आत्मीयता और उनकी आड़ लेकर यानी उनको बिंब-प्रतीक बनाकर मनुष्य की रागात्मकता, जिजीविषा, संघर्ष और ताप को व्यक्त करने का मोह और कौशल आद्यांत विद्यमान देखा जा सकता है। यह सब हम शंभुनाथ सिंह, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, राजेंद्र प्रसाद सिंह से लेकर गुलाब सिंह, मयंक श्रीवास्तव, शांति सुमन, राम सेंगर, नचिकेता, वीरेंद्र आस्तिक, बुद्धिनाथ मिश्र, विनय भदौरिया और रमाकांत तक भी बराबर बना हुआ देखते हैं। देखें- “पुरवा जो डोल गई/ घटा-घटा आँगन में/ जूड़े-सा खोल गई/ गाँवों की रौनक है/ मेहनत की बाहों में/ धोबन भी पाटे पे/ हइया छू बोल गई।” या- “मेरी कोशिश है/ कि नदी का बहना मुझमे हो” (डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया) जैसी संपूर्ण भारतीय संस्कृति की ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की कामना से भरी नवगीत-कविता; इतना ही नहीं, नवगीत-कविता में आद्यांत चर्चा में रहने वाली उसकी विशेषता ‘शिल्पगत प्रयोग’ को समारंभ के तीसरे कवि राजेंद्र प्रसाद सिंह के नवगीतों में देखा जा सकता है। छठवें-सातवें दशक के इस नवगीत कवि में सामाजिक-वैचारिक बदलाव के उस आत्महंता नैराश्य में परिणति को भी देखा जा सकता है, जो आज की प्रमुख समस्याओं में से एक है। देखें-
इधर एक पोखर है/ उधर एक नदी
और बीच में सड़क हुई खतम,
ए जी! किधर जाएँ हम!
सड़क एक लम्बी/ जो आँगन में जनमी
दरवाजे से निकली तो बहक गई
चौकों पर अँटकी/ बाजारों में भटकी
थककर टूटी सीढ़ी से लटक गई!
कूदे वह और बँधे पानी में डूबे
या कि दौड़कर पकड़े नाव?
इधर वही सीढ़ी है/ उधर घाट-गली
और गाँठ बना नीति का भरम,
ए जी! किधर जाएँ हम!
पुस्तक के दूसरे खण्ड ‘नवरंग’ में प्रवेश करते ही 1940 में जन्मे और आज के शीर्षस्थ नवगीत कवि गुलाब सिंह की नवगीत कवितायें पाते हैं। गुलाब सिंह एक अलग ही रंग के कवि हैं। भारतीय गाँवों की दशा और दुर्दशा के बहाने वे सामाजिक बदलावों के साथ व्यवस्था-रचित छद्म व व्यक्ति पर उसके प्रभाव तथा भूख से जूझते आदमी की आशाओं-आकांक्षाओं और संघर्षों के चित्र उनकी कविता में मिलते हैं। इनकी कविताओं में लय, छंद, प्रवाह की विद्यमानता कविता को पाठक के भीतर उतारने में समर्थ है। देखें-
यह शहर का घाट है/ पानी नहीं, सीढ़ी तो है
इस सदी का सफर है/ सपने नहीं, पीढ़ी तो है।
या
शब्दों के हाथी पर/ ऊँघता महावत है
गाँव मेरा लाठी और/ भैंस की कहावत है
शीत-घाम का वैभव/ रातों का अंधकार
पकते गुड़ की सुगंध/ धूल-धुएँ का गुबार
पेट-पीठ के रिश्ते/ ढो रहा यथावत है।
नवरंग के दूसरे कवि मयंक श्रीवास्तव की नवगीत कविताओं में ग्राम्य-रति के साथ ज्यादातर चिंता खेमों में बटते लोगों, बढ़ती महंगाई और प्रकृति के अनियंत्रित दोहन को लेकर भी दिखाई पड़ती है। उनकी, “चले जा रहे लोग यहाँ/ खेमों में बंटे हुए/ एक दूसरे से लम्बे/ अरसे से कटे हुए” या- “आग लगती जा रही है/ अन्न-पानी में/ और जलसे हो रहे हैं/ राजधानी में” अथवा- “जब से नदिया पर डाका/ डाला है बिल्डर ने/ बंद किया खैरियत पूछना/ जालिम अंबर ने” जैसी नवगीत कवितायें संकलित हैं, जो सहज भाषा-शैली में होने के बावजूद गहरी अर्थ व्यञ्जना से भरी हुई हैं।
अपने समय में नवगीत कविता को मंचो पर पूरी ठसक के साथ जमाये रखने वाली कवयित्री शांति सुमन को नवरंग के तीसरे कवि के रूप में लिया गया है। शांति सुमन जी की नवगीत कविताओं में कथ्य की दृष्टि से अच्छा वैविध्य देखने को मिलता है। इन्होंने “दरवाजे का आम-आँवला,/ घर का तुलसी चौरा/ इसीलिए अम्मा ने अपना,/ गाँव नहीं छोड़ा” लिखकर, जहाँ संतति के लिए अपनी सारी इच्छाएँ दबाकर जीने वाली माँ की ग्राम्य-रति का मूल खोजने की कोशिश की है, वहीं वे ‘आ गए काली आँधियों के दायरे में हम/ खेत में जलती फसल-सी जिंदगी’ जैसी कविता लिखकर बदहाल किसान और आज के मनुष्य की त्रस्त जीवन स्थिति का चित्र भी अंकित करती हैं। साथ ही वे ‘भीतर-भीतर आग भरी है बाहर तो सन्नाटा है’, ‘इस अकाल में बच्चे रोते मुंह में कौर नहीं’, जैसी नवगीत कविताओं के साथ वत्सलता की वास्तविक और भीतर तक उतर जाने वाली अनुभूति की विरल नवगीत कविता रचती हैं। देखें-
धीरे पाँव धरो!
आज पिता-गृह धन्य हुआ है
मंत्र-सदृश उचरो!
तुम अम्मा के घर की देहरी
बाबूजी की शान
तुम भाभी के जूड़े का पिन
भैया की मुस्कान
पोर-पोर आँगन के
लाल महावर-सी निखरो!
नवरंग के चौथे कवि के रूप में नवगीत कविता के विलक्षण और सर्वाधिक शिल्पगत प्रयोगों के साथ जीवन स्थितियों के अनुभूतिजन्य, जीवंत चित्र उकेरने वाले कवि राम सेंगर को पढ़ते हैं। देखें- “खेत-कोनियाँ-पार सभी गरकी में आये/ बारिश ने सब इस गरीब के रंग उड़ाये/ कैसा कहर हमारे ऊपर प्रभु ने ढाया है/अबकी यह आषाढ़/ तबाही लेकर आया है” या “रंग-भेद, पाखंड, धरम के/ तोप, तमंचे, बम/ इतना तय है, हर कीमत पर/ बचे रहेंगे हम।” यहाँ संपादक ने जहाँ उनके ‘चढ़ी बाँस पर नटनी’, ‘चीरें एक, बघारें पाँच’, ‘अबकी यह आसाढ़’, ‘मन की कौंध जगाये’, जैसे व्यापक और समष्टिगत संवेदनाओं के नवगीत शामिल किये हैं, वहीं ‘रहे आदमी कोरे’, हवेलियों का गाँव हमारा’,’ लय पकड़ने की कवायद’ और’ ‘अपने भी दिन आएँगे’ जैसे ऐसी नवगीत-कवितायें शामिल की हैं, जिनमें कवि के निजी जीवन के अक्श तो हैं, किन्तु यहाँ भी विडम्बनापूर्ण जीवन-स्थितियों के चित्र पूरी संवेदना से पगे हुए हैं; दरअसल ये कवि की ऐसी जीवनानुभूतियाँ हैं, जो अधिसंख्य आम आदमी की जीवन स्थितियों से पैदा हुई हैं। वे यह सब लिखते हुए आशा का ऐसा वितान भी तानते हैं, कि यह आशा दुनिया से टकरा जाने की ताकत पैदा कर देती है।
‘नवगीत वाङ्मय’ के नवरंग खंड के पांचवें कवि नचिकेता अपनी जनवादी तेवर की नवगीत कविताओं और उनके मुखर पक्षधर कवि के रूप में जाने जाते हैं। वह कई-कई संदर्भों में कविता के एकाधिक प्रारूपों में लिखते रहे हैं, किंतु उनका प्रतिबद्ध स्वर जनपक्षधरता का ही है। यहाँ भी उनके इस सोच के नवगीतों का चयन कर संपादक ने नचिकेता की उपस्थिति को और पुख्ता किया है। यथार्थ बनाया है। देखें – “फूल गया महुआ/ अच्छे दिन आने वाले हैं/ वनवासी चेहरे थोड़ा/ मुस्काने वाले हैं” और “पर, महुआ की/ खैर नहीं है ठेकेदारों से/ हरियाली गुम होगी/ जंगल और पहाड़ों से/ खेल सियासी इन पर/ बज्र गिराने वाले हैं।” गाँव में हुए और हो रहे बदलाव गीत कविता के हर कवि का विषय बने हैं। नचिकेता जी के नवगीतों में भी यह बार-बार अंकित होता है। जहाँ साहित्य में कभी गाँव के प्रति आत्मीय लगाव नॉस्टैल्जिया की तरह लिखा गया, वहीं एक अंतराल के बाद आज वह लगाव कहीं दिखता ही नहीं। इस बदलाव को अंकित करते हुए नचिकेता मानो समय, समाज और पीढ़ी के ही बदलाव को अंकित कर रहे हैं। देखें-
नयी सदी की
नयी इबारत लिखता मेरा गाँव
युवा वर्ग को रहा नहीं
गाँवों से तनिक लगाव
अपनेपन की कब्र खोदता
है चेहरे का भाव
काम-धाम का
टारगेट है लुधियाना-पंजाब।
नवरंग के छठवें कवि के रूप में संपादक ने वीरेंद्र आस्तिक जी की नवगीत कविताओं को शामिल किया है। यहाँ संकलित पहला ही नवगीत “तुम नायक” में कवि उस व्यक्ति के प्रति अपनी पक्षधरता की घोषणा करता है, जो निरीह है और सदैव ताकतवर लोग उसे सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर ऊपर चढ़ जाते हैं। वे उससे कोई आत्मीयता, निकटता या संवेदना भी नहीं रखते- “तुम नायक मेरी कविता के/ जबर बना कर तुमको सीढ़ी/ आसमान पर चढ़ जाते हैं।/ तुम हो कितने पास मगर वे/ कितने दूर-दूर रहते हैं/ कहने भर को महानगर में/ झुग्गी और महल रहते हैं/ बराबरी के बन प्रतीक वे/ ‘राजघाट’ तक हो आते हैं।” यहाँ भी ऐसे आगे बढ़ने वाले लोगों में ‘उपन्यास सम्राट’ सहित ‘स्लमडॉग’ जैसी फिल्म बनाकर झुग्गी-झोपड़ियों के बीच पलती प्रतिभा की पहचान की कोशिश करने वाले निर्माता-निर्देशक और साहित्य-जगत के आलोचकों तक को अपने प्रश्नों के घेरे में लेते हैं- “उपन्यास सम्राट बने वो/ जस के तस तुम धनिया-गोबर/तुमको पढ़-पढ़ हुए यहाँ पर/ बड़े नामवर, बड़े मनीजर/ तुम ही तो ‘स्लमडाग’ तुम्हीं पर/ लोग पुरस्कृत हो जाते हैं।” यहाँ कोई आलोचक कह सकता है कि कवि जिन प्रतीकों के सहारे प्रश्न खड़ा करता है, यदि रचनाकार इन प्रतीकों को लेकर यह भी नहीं करेंगे, तो समस्या कभी दिखाई ही नहीं पड़ेगी और यदि इस तरह के प्रयत्नों पर ही उंगली उठने लगे और वह भी प्रबुद्ध और चिंतक कवियों के द्वारा, तो समस्याओं पर लिखना ही रुक जाएगा। वास्तव में यहाँ कवि संघर्षरत मनुष्य के जीवन में सार्थक बदलाव न आने से चिंतित दिखाई पड़ रहा है। इसके बाद के शामिल आस्तिक जी के गीत ‘पेड़ों से बतियाएँ’, वनवासी जीवन की इस समाज के लिए सार्थकता की बात करता है, तो वहीं ‘काम अपना क्या यहाँ’, ‘बाजारें हैं रिश्तों की’, ‘हम जमीन पर ही रहते हैं’ जैसी नवगीत कविताओं में उत्तर आधुनिक संस्कारों की जकड़बंदी से आहत होते मन की मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ “दासता करता कुबेरों की थका”, ‘मैं समय हूँ, अब बदल डालो मुझे’ जैसा प्रतिरोध को आमंत्रित करता समकाल का गीत है।
‘नवगीत वाङ्मय’ में नवरंग के सातवें कवि बुद्धिनाथ मिश्र हैं। ये नवगीत कविता को कविता की श्रुति परंपरा में मंचों पर पूरी ताकत से बनाये और बचाये रखने वाले बड़े कवि हैं। यहाँ सम्मिलित नवगीतों में बुद्धिनाथ मिश्र हर उस शोषित, दलित और पिछड़े रह गये व्यक्ति के साथ खड़े दिखाई देते हैं, जो पूँजी, राजनीति, बाजार आदि किसी भी कारण से शोषण का शिकार हुए हैं। वे लिखते हैं- “मैं वहीं हूँ, जिस जगह पहले कभी था/ लोग कोसों दूर आगे बढ़ गए हैं” और “भूखे-प्यासे रहकर पुरखे जिए अकालों में/ मरा डूबकर गाँव कर्ज के गहरे तालों में।” इनके साथ ही “नदी रुकती नहीं है/ लाख चाहे सेतु की कड़ियाँ पिन्हा दो/ ओढ़कर शैवाल वह चलती रहेगी” जैसा व्यञ्जना भरा नवगीत भी यहाँ पढ़ा जा सकता है।
नवरंग खंड के सातवें कवि बुद्धिनाथ मिश्र का जन्म 1949 में हुआ, वहीं आठवें कवि विनय भदौरया का जन्म 1958 में होता है। संपादक ने जहाँ सन् 1940 से 1950 के बीच जन्में सात कवि शामिल किये हैं, वहीं वह अगले दो दशकों से एक-एक नवगीतकार ही रखता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि आखिर सम्पादक पूरे एक दशक को पूरी तरह छोड़कर छलाँग लगाते हुए सीधे सन् 1958 में क्यों पहुँच जाता है। यहाँ यह प्रश्न भी उठना स्वाभाविक है कि क्या इस अवधि में पैदा होने वाले कवियों में कोई उल्लेखनीय नवगीत कवि नहीं हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं कि संपादक ने भविष्य की किसी योजना को ध्यान में रखकर ऐसा किया हो? खैर…. यह संपादक का अपना निर्णय है, किंतु प्रश्न से परे फिर भी नहीं है।
डॉ विनय भदौरिया ग्राम्य रति की आत्मीयता में पगे नवगीत कवि हैं। उनके गीतों में गाँव का वह आत्मीय चेहरा भी दिखता है और उसके सापेक्ष शहर का अजनबीपन, स्वार्थीपन तथा बदलता हुआ गाँव भी दिखाई पड़ता है। देखें – “वैसे पुरखों की देहरी से/ अब भी रहा लगाव हमें/ मजबूरी में पड़ा छोड़ना/ भैया अपना गाँव हमें/ रास न आता अब पड़ोस का/ कोई आज स्वभाव हमें।/ रात-रात चलती पंचायत/ व्यर्थ पनालों-नाबदान की/ इधर हमारे घर में उत्सव/ उधर बैठकें खानदान की/ न्याय-अहिंसा और प्रेम का/ खटका बड़ा अभाव हमें।” विनय भदौरया मानुषी प्रवृत्तियों के साथ आध्यात्म को भी नवगीत बनाने वाले कवि हैं। इस दृष्टि से ये नवगीत कविता को एक विस्तार देते हैं।
नवरंग खण्ड अंतिम कवि रमाकांत अपने खास तेवर के नवगीतों के लिए पहचान बनाने में सफल नवगीत कवि हैं। उनकी नवगीत कविताओं में सर्वत्र निरंतर मेहनत करने के बावजूद अभाव, गरीबी, तिरस्कार, विकट जीवन स्थितियों से जूझते मनुष्य के दृश्य दिखाई पड़ते हैं। देखें- “हर सुबह उठना/ समय को ताकना फिर/ एक कोल्हू बैल वाला/ हाँकना फिर” या फिर- “जागे तुम अक्सर ही भाई/ फिर भी जागृति रही पराई/ जाल और फन्दे ऐसे थे/ तड़पन ही हिस्से में आई/ निर्दय, कलावंत लोगों से/ तुम भी डरते हो।”
इस तरह ‘नवगीत वाङ्मय’ के रूप में संपादक डॉ अवनीश सिंह ने एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। एक लंबे कालखंड को समेटने जैसे मुश्किल काम को उन्होंने किया है; यद्यपि यहाँ दो चीजें हुई हैं- एक तो सन् 1950 से 1960 और 1960 से 1970 के बीच जन्में कवियों का प्रतिनिधित्व अति न्यून रह गया है। कुछ और लोगों को शामिल करते तो शायद इन कालखण्डों के लेखन की कुछ और प्रवृत्तियाँ सामने आ पातीं। दूसरा 1970 के बाद जन्म लेने वाले नवगीतकवियों पर अभी काम बाकी है। इन सारी सीमाओं के बावजूद यह संकलन इस दृष्टि से भी उल्लेखनीय माना जाएगा कि संपादक ने जहाँ ‘समारंभ’ में शामिल नवगीत कवियों के चर्चित नवगीत लिए हैं, वहीं ‘नवरंग’ में शामिल नवगीतकवियों की उन कविताओं को भी शामिल किया है, जो प्रायः उतनी चर्चित नहीं रहीं और उनके यहाँ होने से इन नवगीत कवियों के और-और रूपों को भी विमर्श के दायरे में लाया जा सकता है। तीसरे खण्ड में दिनेश सिंह जी का आलेख और चौथे खण्ड में डॉ मधुसूदन साहा जी का साक्षात्कार भी नवगीत की संवेदना और सरोकारों को जानने-समझने के लिए विस्तृत विश्लेषण की माँग करते हैं।
‘नवगीत वाङ्मय’ शीर्षक से यह समवेत संकलन नवगीत वाङ्मय से चुनी हुई श्रेष्ठ कविताओं का गुलदस्ता है। निश्चित ही यह कविता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय माना जाएगा। इस ग्रन्थ के संपादक अवनीश सिंह चौहान जी को हार्दिक शुभकामनाएँ, बधाई।
समीक्षक :
राजा अवस्थी
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