हम मेघ से स्वयम को मिटाते चले गए,
प्यासों की प्यास, ऐसे बुझाते चले गए ।
जो देते रहे, घृणा का धुआँ हमें सदैव-
हम खुशी की बौछारें बरसाते चले गए ।
दुनिया को समझ ही ना पाए हम कभी-
चालबाजों पर ही जीवन लुटाते चले गए ।
रिश्तों की राजनीति भी, कैसी हो गयी-
हर शर्त को, फिर भी निभाते चले गए ।
कई बार बढ़ा धरा से जीवन का भार तो
गिरते-संभलते फिर भी उठाते चले गए ।
भोर अपने घर कभी आएगी तो जरूर-
यूँ सारे ही दुख-दर्दों को भुलाते चले गए ।
तू मान जा इन बाजों से लड़ना सीख ले,
हस्ती को मिटा दे जो भी सताते चले गए ।
— प्रमोद गुप्त