लघुकथा

ईमान-धर्म

 

चुनावी रैली में देर हो जाने की वजह से नेताजी को अचानक रात्रि विश्राम के लिए शहर के सर्किट हाउस में रुकना पड़ा। लगभग सत्तर वर्षीय चिर युवा नेता की रंगीन मिजाजी को समझते हुए उनके लिए शराब और शबाब का इंतजाम करने में कार्यकर्ता जुट गए।
शहर की सबसे महँगी और जिस्मफरोशी की दुनिया में चर्चित ‘मुनिया’ के लिए ‘मुन्नीबाई’ से संपर्क किया गया।
पता चला मुनिया आज की रात किसी और के लिए बुक हो चुकी है।
नेताजी की पसंद का ध्यान रखते हुए कार्यकर्ता ने मुन्नीबाई को दोगुने पैसे का लालच दिया। उसने विनम्रता से इंकार करते हुए दूसरी लड़की भेजने की बात की, लेकिन कार्यकर्ता अपनी जिद्द पर अड़ा रहा और अंत में उसे देख लेने की धमकी भी दे डाली।

उसकी धमकी सुनकर बिफरते हुए मुन्नीबाई बोली, ” देखो, तुम्हें जो करना हो कर लेना, हमें कोई परवाह नहीं और हाँ..! कान खोलकर सुन लो ..हम अपने ग्राहक और पेशे के प्रति ईमानदार होते हैं। हम जिस्म बेचते हैं अपना, ईमान नहीं ! अपने पेशे से ईमानदारी ही है हमारा धर्म !”
कार्यकर्ता बात पूरी होने से पहले ही नदारद हो चुका था।

राजकुमार कांदु
स्वरचित / मौलिक

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।