गीतिका
आँसुओं से प्यास मैंने आज फिर बुझाई है।
हँस रहा हूँ ,पीर लिए , वक्त तमाशाई है ।
एंबुलेस जाम में फंसी, गरीब मर गया ,
शहर से विधायक की हो रही विदाई है ।
लग रहा चुनाव नजदीक आने वाला है,
दिल्ली ने विकास की बाँसुरी बजाई है।
देश की रगों में निर्बाध रक्त कैसे बहे ?
हर एक तंत्र में पदस्थ रक्तपायी है ।
कहीं कुत्ते काट रहे,बिस्कुट मलाई, माल,
भूखे आदमी ने रात जाग के बिताई है।
शहरों की भीड़ में भले ही खो गई हो कहीं,
गाँव में कहीं – कहीं पे शेष मनुसाई है।
हाय रे विधाता तेरे नियम अजीब से है,
अति न्यूनता हैं कहीं अति अधिकाई है ।
शंभु ! अब तीसरे नयन को उघारो नाथ !
आदमी के भार से मही ये उकताई है ।
—————© डॉ दिवाकर दत्त त्रिपाठी