गीत
हूँ सुषुप्त ,अंतस में कोई प्रलय दबाये।
पीड़ामय यह मौन ,नित्य दीमक सा खाये ।
पक्षपात का जहर नित्य दम घोंट रहा है।
मेरे मन को वातावरण कचोट रहा है ।
व्याध कभी यशवान नही हो पायेगा तू !
तू पापी है ,तेरे मन में खोट रहा है ।
जाग समय पर ,शाप नही वापस होते हैं,
न जाने कब कौन बाल्मीकी हो जाये ।
हूँ सुषुप्त अंतस……………………..
आत्ममुग्धता के रोगी को कौन बताये ?
जो मदांध है ,उसको राह कौन दिखलाये ?
जो शंका का रोग हृदय में पाले बैठा ,
उसको अपने मन की पीड़ा कौन बताये ?
अपने लिए लचीला, औरों खातिर पत्थर,
न जाने कब दलबदलू पलटी खा जाये ?
हूँ सुषुप्त अंतस में कोई…………….
दावानल बन सकती है, छोटी चिंगारी ।
बड़े बड़े तरू काट गिराये पतली आरी।
समय शिखंडी को भी महारथी कर देता,
समय छीन लेता वीरों की क्षमता सारी ।
परिवर्तन है नियम ,नही कुछ भी स्थिर है,
जाने कब महिपाल ,मही औंधे मुँह आये ?
हूँ सुषुप्त……………………………
©डॉ दिवाकर दत्त त्रिपाठी