कविता

पतझड़

कितना लुभावना होता है
पतझड़ भी कभी-कभी
बाग़ों में
ज़मीं पे बिखरे
सूखे ज़र्द पत्तों पर चलना
कितना भला लगता है कभी-कभी
माहौल को रूमानी बनातीं
दरख़्तों की, वीरान डालों पर
चहकते परिंदों की आवाज़ें
कितनी भली लगती हैं कभी-कभी
क्यारियों में लगे
गेंदे और गुलाब के
खिलते फूलों की
भीनी-भीनी ख़ुशबू
आंगन में कच्ची दीवारों पर, चढ़ती धूप
कितनी भली लगती है, कभी-कभी
सच! पतझड़ का भी
अपना ही रंग
बसंत और बरसात की तरह…
— फ़िरदौस ख़ान

फ़िरदौस ख़ान

शायरा, लेखिका व पत्रकार हैं. फ़िलहाल वे स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं ईमेल : [email protected]