अपना जिसे समझा, हमारा कहाँ है,
हमको हृदय में उसने, उतारा कहाँ है ।
सभी उड़ गए हैं, जो सपने थे पाले-
पर कर्मों से ये जीवन संवारा कहाँ है ।
वह एक दिन मिल ही जाता हमें भी-
किन्तु उसे, आत्मा से पुकारा कहाँ है ।
माँगकर भीख वह, ठेके पर गया था-
अब बोलिये तो सही, बेचारा कहाँ है ।
टूटकर ही स्वयं, इस तरह हैं बिखरे-
पता ही नहीं है अब किनारा कहाँ है ।
आसुंओं को बहा वह रोया बहुत था-
सोचिए तो जरा सागर खारा कहाँ है ।
सूझता कुछ नहीं दास हम हो गए है-
भ्रमित कर रहे मन को, मारा कहाँ है ।
— प्रमोद गुप्त