पहले था, लोग कहते भला आदमी-
आज किस राह पर ये चला आदमी ।
इसकी मंजिल पूरब में ठहरी मगर-
ये पश्चिम को चला दिलजला आदमी ।
जानवर के गुण, सब के सब पा लिए-
जाने कौन सी किताबों से पला आदमी ।
इस धरा के जीव, जाएँ तो जाएँ कहाँ-
कब किसे खा जाए ये मनचला आदमी ।
सामाजिक कहता भले अपने-आप को
परस्पर एक-दूसरे को ये खला आदमी ।
सुन्दर हृदय को अपने, ये शातिर बना-
आजकल तो, आदमी ने छला आदमी ।
मायने अपने जीवन के ये सारे बदल-
जाने कौन से साँचे में है, ढला आदमी ।
— प्रमोद गुप्त