राजनीति

त्रिपुरा की जीत की कहानी

त्रिपुरा की जीत के पीछे उस भयंकर लूट के खात्मे की कहानी भी है जिसने त्रिपुरा के नौजवानों की किस्मत बदल दी है और पूरे पूर्वोत्तर का खर्च आधा कर दिया है।
2018 में कम्युनिस्टों के सफाए के साथ त्रिपुरा में पहली बार बनी भाजपा की सरकार के नौजवान मुख्यमंत्री विप्लव कुमार देव की नज़र उस लूट पर पड़ी थी जिसके कारण त्रिपुरा समेत पूरा पूर्वोत्तर लुट रहा था।
समुद्री मार्ग से आने वाली वस्तुएं पूर्वोत्तर तक पहुंचाने का एकमात्र मार्ग बंगाल का हल्दिया बंदरगाह हुआ करता था। पूर्वोत्तर के प्रवेश द्वार गुवाहाटी की हल्दिया बंदरगाह से दूरी थी 1220 किमी तथा त्रिपुरा की राजधानी अगरतला की दूरी थी 1645 किमी। जबकि त्रिपुरा से बांग्लादेश के चटगांव बंदरगाह, जिसे अब चट्टोग्राम बंदरगाह कहा जाता है, की दूरी थी मात्र 67 किमी। तथा त्रिपुरा से गुवाहाटी की दूरी है केवल 550 किमी। अगरतला से चट्टोग्राम को दो नदियां, बंगला देश की मेघना तथा त्रिपुरा की गुमती नदी जोड़ती हैं। मेघना में छोटे जहाज पहले से ही चलते थे। केवल गुमती नदी के 35 किलोमीटर की लंबाई में जमी गाद के कारण छोटे जहाज नहीं चल सकते थे।
अब समझिए उस लूट की कहानी…
1971 में बांग्लादेश को मिली आज़ादी के बाद चट्टोग्राम बंदरगाह के व्यापारिक इस्तेमाल की अनुमति भारत को मिल सकती थी। लेकिन 44 साल तक इसकीं कोई कोशिश नहीं की गयी। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने इसके लिए प्रयास किया। 6 जून 2015 को बांग्लादेश के साथ एमओयू साइन किया गया। 25 अक्टूबर को इस संदर्भ में समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। त्रिपुरा के मुख्यमंत्री का दायित्व संभालते ही विप्लव कुमार दास ने प्रधानमंत्री मोदी तथा तत्कालीन जलमार्ग मंत्री नितिन गडकरी से मिलकर गुमती नदी की ड्रेजिंग कर उसकी गाद की सफाई करने का अनुरोध किया था। दो साल में ही इसका परिणाम सामने आ गया था। पिछले वर्ष 5 सितंबर 2020 को भारत बांग्लादेश के मध्य व्यापारिक जलमार्ग का उदघाटन हो गया था। प्रधानमंत्री मोदी ने इसी वर्ष फैनी नदी पर बने डेढ़ किलोमीटर लंबे मैत्री सेतु का उदघाटन कर बांग्लादेश के चट्टोग्राम बंदरगाह से त्रिपुरा को सड़क मार्ग से भी जोड़ दिया है।
साल भर पहले, त्रिपुरा समेत पूर्वोत्तर के 8 राज्यों के लिए व्यवसायिक परिवहन और आपूर्ति का मुख्य केन्द्र (Logistics Hub) बन चुका है। आज हजारों ट्रकों का संचालन त्रिपुरा की धरती से हो रहा है। आगे आने वाले वर्षों में यह क्रम लगातार बढ़ते जाना है। बांग्लादेश से व्यवसायिक जल परिवहन का मार्ग खोलने का प्रधानमंत्री मोदी का निर्णय तथा नौजवान मुख्यमंत्री विप्लव कुमार देव का प्रयास लगभग 42 लाख जनसंख्या वाले त्रिपुरा के लिए वरदान सिद्ध हुआ है। पूरे पूर्वोत्तर के सभी राज्यों के व्यापारियों और नागरिकों को भी इससे अभूतपूर्व राहत मिली है, भारी लाभ हुआ है। मुझे याद है कि अक्टूबर 2018 में नौजवान मुख्यमंत्री विप्लव कुमार देव ने एक इंटरव्यू में कहा था कि मैं तीन साल में त्रिपुरा को नार्थ ईस्ट का लॉजिस्टिक हब बना दूंगा। अपने उस वायदे को उस नौजवान मुख्यमंत्री ने 2 वर्ष में ही पूरा कर के दिखा दिया है। उस नौजवान मुख्यमंत्री विप्लव कुमार देव की उसी कर्मठता का परिणाम आज चुनाव परिणाम के रूप में सामने आया है। सेक्युलरी शिगूफों और जातीय धार्मिक हथकंडो की राजनीति करने वालों को त्रिपुरा की जनता ने बहुत बेआबरू कर के बुरी तरह खदेड़ा है। इसका विशेष कारण भी है।
जो काम 40-45 साल पहले हो जाना चाहिए था वह काम 2014 तक क्यों नहीं हुआ.? इसका कारण यह था कि 1977 से बंगाल और त्रिपुरा की सत्ता पर कम्युनिस्ट ही काबिज़ थे। हल्दिया से पूर्वोत्तर तक माल ढोने का हजारों करोड़ सालाना का धंधा बंगाल की कम्युनिस्ट पार्टी के गुंडों के पास ही था। मनमानी दरों पर वो इस काम को करते थे। इसीलिए 45 साल तक वह काम नहीं हो सका जो प्रधानमंत्री मोदी ने केवल 4-5 वर्षों में कर दिखाया।
लेकिन रातदिन केजरीवाल के फर्जीवाड़े के प्रशंसा गीत गाने वाले न्यूजचैनलों पर त्रिपुरा के नौजवान कर्मठ मुख्यमंत्री की प्रशंसा तो छोड़िए, उसका जिक्र भी आपने कभी नहीं सुना होगा। इसके बजाए मंदिरों पर ज
हमले करने वाले मज़हबी गुंडों को बचाने के लिए लुटियन न्यूजचैनल, मीडिया त्रिपुरा के मुख्यमंत्री और सरकार के खिलाफ झूठ का ज़हर उगल रहे थे। लेकिन जनता इन न्यूजचैनलों की फर्जी और ज़हरीली वेताल कथाओं को सुन कर फैसले नहीं करती। जनता के फैसले जमीन के सच को देख सुन और भोग कर ही किए जाते हैं।
त्रिपुरा ने यह संदेश दिया है कि हिंदुत्ववादी सरकार जनता के हितों उसके सुखदुख का क्या और कैसा ख्याल रखती है।
अंत में आज बस इतना संकेत कर दूं कि उत्तरप्रदेश में भी जनता का मूड वही है, जिसकी झलक आपने आज त्रिपुरा के जनादेश में देखी है। आने वाले दिनों में इसके कारण भी ठोस तथ्यों और तर्कों के साथ बताऊंगा गिनाउंगा। इसलिए न्यूजचैनलों के सर्वे और विश्लेषणों को कूड़े के ढेर से ज्यादा महत्व मत दीजिए।