बेबस
राजमार्ग पर सड़क किनारे लगे एक मील के पत्थर के करीब बैठी शून्य में ताकती वृद्धा के हवाले उसकी पोती की और कहा, “ये ले काकी, तेरी पोती! काफी देर पीछा करने के बाद आखिरकार उठाईगीर पकड़ में आ ही गए। अच्छा किया कि मोबाइल से तुरंत सौ नंबर पर फोन करके सही से सूचना दे दी। क्षेत्रीय गश्ती दल तुरन्त पीछे लगा, तभी पकड़े गए। एक बार नजरों से ओझल हो जाते तो हम लकीर पीटते रह जाते।”
“यह बुढ़िया आपको दिल से आशीर्वाद देती है, दारोगा बाबू! राम जी गरीबों की गुहार सुनने वाले आप जैसे इंसान को सुखी रखें।”
“पर काकी! शौचालय बनवाने के लिए सबको सरकारी अनुदान मिला था तो शौचालय बनवाना था। इस तरह सड़क के किनारे गड्ढों का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं पड़ती या फिर सरकारी अनुदान खा पीकर हजम कर लिया?”
“हम अनपढ़-गवार, न जान-पहचान, न घर में मरद-मानुष, हमें कहाँ पैसे मिले शौचालय बनवाने के। ऊ तो बड़कन लोग …”
“सार्वजनिक शौचालय भी तो बने हैं। उसमें जा सकती हो ना।”
“अरे बाबू! ऊ बड़ा गंदा रहत है।”
“हद है काकी! अब हम क्या पुलिस की नौकरी छोड़ कर भंगी की नौकरी पकड़ लें? सार्वजनिक शौचालय उपलब्ध करवाना सरकार का काम है, पर उसके बाद गंदा रहे तो इसमें भी सरकार की गलती है? शौचालय इस्तेमाल करने के बाद ढंग से पानी-वानी डालो, चंदा-वंदा करके उनकी साफ सफाई करवाओ। सबकी सुरक्षा तो बनी रहेगी।
आज लड़की नहीं मिलती तो बस्ती के लोग सड़क रोक आंदोलन पर बैठ जाते। टायर जलाते, और पूरा राजमार्ग जाम कर देते, पुलिस-प्रशासन मुर्दाबाद के नारे लगाते, मुफ्त का बड़ा बखेड़ा खड़ा हो जाता”, पुलिस वाले झल्लाते हुए गाड़ी से निकल गए।
— नीना सिन्हा