दुर्व्यवस्था का वजन ढोते रहे हैं,
तो लीक जैसे हादसे होते रहे हैं ।
खुल गया यह राज, इस राज में-
वरना चुपके से लगा गोते रहे हैं ।
बबूल के अंकुर दिखते हैं कहाँ-
उनके बड़े होने तक सोते रहे हैं ।
बस चलते जा रहे हैं आँख मूंदे-
यूँ पीठ पीछे मंजिलें खोते रहे हैं ।
बिलबिलाते हैं फसल देख हम-
जब कि हम विष ही बोते रहे हैं ।
पारदर्शी सोच का बाजार गायब
ये बैल की बुद्धि लिए रोते रहे हैं ।
तोड़कर, अपने दादा की माला-
झूंठे मोती ही उसमें पिरोते रहे हैं ।
— प्रमोद गुप्त