सम्मान
दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। विजयेन्द्र साहू जी ने दरवाजा खोला। देखा, दरवाजे पर एक युवक खड़ा था। उसने अपना परिचय देते हुए कहा- “नमस्ते ! मैं विशाल मंडावी हूँ। क्या यह मकान श्री विजयेन्द्र साहू जी का है ?”
” जी नहीं। यह घर विजयेन्द्र साहू का है। अंदर आइए।” विजयेन्द्र जी ने कहा।
विशाल मंडावी जी एक कमरे में बैठे। कुछ देर बाद विजयेन्द्र जी एक गिलास पानी लेकर आए। विशाल जी ने पानी पीया। बेंच पर गिलास रखते हुए कहा- “विजयेन्द्र साहू जी हैं क्या ? मैं उनसे ही मिलने आया हूँ।” कुछ देर तक शांत रहने के बाद विजयेन्द्र जी ने कहा- “बोलिए न जी…मैं ही हूँ विजयेन्द्र साहू। क्या बात है ?” विशाल जी तुरंत खड़े हो गये। “नमस्कार” के साथ उनके हाथ पुनः जुड़ गये। फिर विजयेन्द्र जी ने उन्हें बैठने के लिए इशारा किया। चाय के साथ दोनों में बातचीत शुरू हुई।
” सर ! मैं भी एक साहित्यकार हूँ। बचपन से मैं आपको पढ़ता रहा हूँ। मैं बहुत ही प्रभावित हूँ आपसे। मैंने पंद्रह किताबें लिख ली हैं आपसे प्रेरित होकर। यहाँ से दो किमी सिवनी ग्राम में एक सम्मान-कार्यक्रम आयोजित था। मैं विशेष रूप से आमंत्रित था वहाँ। मुझे सम्मानित भी किया गया। कार्यक्रम समाप्ति के पश्चात आपसे मिलने की इच्छा हुई; और आ गया मिलने।” विजयेन्द्र जी उनकी बातों पर सर हिला रहे थे।
“आपकी सात किताबों में से “अनजान रास्ता” किताब मुझे सबसे अच्छी लगी। विशाल जी का कहना जारी था- वैसे भी पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ पढ़ता ही रहता हूँ। अक्सर आपकी रचनाओं के साथ मेरी रचनाएँ भी रहती हैं; आप पढ़ते ही होंगे।” इस तरह विशाल जी ने अपनी बातें पूरी की।
“बहुत-बहुत धन्यवाद। आप मेरी रचनाओं को पढ़ते हैं इसलिए। विशाल भाई, लिख लेता हूँ, जो देखता-सुनता हूँ; मन में जो बात आती है, लिख लेता हूँ। भेज देता हूँ पत्र-पत्रिकाओं में। छपते हैं या नहीं; कभी पता चलता है, और कभी नहीं। अच्छा लगा जी, आप मुझसे मिलने आये।” विजयेन्द्र जी ने कहा।
“सर ! लेकिन मैं अपने बहुत ही कम समय में कई जगहों से सम्मानित हो गया। आप कहीं किसी सम्मान-कार्यक्रम में नहीं दिखते।” विशाल की बातों में दर्प था।
“हाँ भाई ! आपके जैसा सम्मान-वम्मान तो नहीं मिला है। बस लिखता हूँ।” विजयेन्द्र जी ने एक लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा।
“और न तो आपके इस कमरे में एक भी सम्मान, प्रशस्ति पत्र; और न ही सम्मान-पदक है। पुरस्कार-सम्मान आदि के लिए आवेदन वगैरह नहीं करते क्या सर ?” विशाल जी ने दीवारों पर नजरें दौड़ाई।
“हाँ भाई विशाल….। मुझसे आवेदन-सावेदन करना नहीं जमता। विजयेन्द्र जी ने धीमी आवाज में कहा। लेकिन ऐसा भी नहीं है; कि मुझे सम्मान नहीं मिलता अपनी साहित्य-सेवा के लिए।” विजयेन्द्र जी कुछ और कह ही रहे थे कि विशाल जी ने कहा- “कुछ तो नहीं दिखता सर।”
“विशाल ! पचास बरस की साहित्यिक सेवा ही मेरा सम्मान है। और दिखने वाला सम्मान तो मेरे सामने है।” विशाल जी को नख-शिख निहारते हुए विजयेन्द्र जी मुस्कुराये। फिर विजयेन्द्र जी की बातें समझ आते ही विशाल जी ने सम्मान-पत्र-प्रतीकचिह्न वाले थैले को तुरंत नीचे रख दिया। सर नत हो गया। दोनों हाथ फिर जुड़ गये।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”