तुम्हारे हाथ के कंगन
तुम्हारे हाथ के कंगन|
भुलाकर रीत हम अपने
अनोखे पाल कर सपने
लगी कुछ यूं लगन तुममे
लगे हैं नाम को जपने
अधूरा जप रहे हरदम
सहज ही डालते अड़चन
तुम्हारे हाथ के कंगन|
कभी पीयूष का वर्षण
कभी प्रिय घोर आकर्षण
कभी मन-मत्त हो जाये
निहारे प्रेम का दर्पण
हठी हैं यूं कसे मुझको
कमर में ज्यों कसी करधन
तुम्हारे हाथ के कंगन|
सरसता या मधुरता हो
तरलता या सुदृढ़ता हो
मदन मन मौन हो जाये
कि जैसे प्रेम पलता हो
कि जब तब बज रहे आकर
लगे ज्यों बन गये धड़कन
तुम्हारे हाथ के कंगन|
कभी प्रत्यक्ष आ जाओ
पता पथ को बता जाओ
कभी वो हाथ स्थिर करके
प्रभाती तक उठा जाओ
जगाते रात भर मुझको
सुनाकर गीत खन खन खन
तुम्हारे हाथ के कंगन|
नयन को प्रिय लगें इतना
कि देखें टार कर अंजन|
तुम्हारे हाथ के कंगन|
— सत्यम् दुबे “शार्दूल”