कविता

कुछ छुपाया है,

कुछ कमाया कुछ बचाया,कुछ छुपाया है,
करके मशक़्क़त हमनें,जिंदगी को चलाया है।
जिंदगी की गाड़ी सीधी चलती  छुक छुक,
कभी पटरी पर कदमों ने डग-मगाया है।
तन्हा हम,लम्बा सफर मंजिल भी दूर है
कभी देखा उजाला,तो कभी अंधेरा छाया है।
मुन्तज़िर रहा मैं राहों में उनकी बेतलब,
वो आया भी तो, फ़क़त , मेरे लिए आया है।
लिपटकर कहता है, हमसे दूर चले जाओ
उसे कैसे बताऊं, दूर भला होता साया है।
उदास चेहरा लिए, दश्त में भटक रहे थे हम,
आबले पड़े है पांव में, बहुत खुदको सताया है।
मतलबी लोगों की भीड़ है चारों और माही
अपनी हंसी की खातिर ,मुझको जोकर बनाया है।

— माही मुन्तज़िर

माही मुन्तज़िर

मंगोलपुरी-दिल्ली