ग़ज़ल
किसी पत्थर को रोता देखने में,
लगे थे सब तमाशा देखने में।
ये पाया है ज़माना देखने में,
मिला है कम ज़ियादा देखने में।
न जाने कितनी टूटन था समेटे,
बहुत सुंदर था कमरा देखने में।
लगे है कितनी उजली-उजली जानां,
तेरी आँखों से दुनिया देखने में।
मिसाल उसकी फ़क़त इतनी है लड़की,
ग़ज़ल का शोख़ मिसरा देखने में।
कहानी उम्र भर की कह गया था,
वरक लगता था कोरा देखने में।
दुआ किसकी है राहें लग गई हैं,
मेरे पांवों का छाला देखने में।
सुना है मेरी आँखों ने उसे और,
लगे हैं कान चेहरा देखने में।
सहर की धूप का चटकीला चेहरा,
‘शिखा’ है उसके जैसा देखने में।
— दीपशिखा