गीतिका
दूसरों की हर कमी को देखता संसार में ।
क्यों नहीं तू झाँकता है स्वयं के किरदार में ?
कर रहा है जमाखोरी, जाने तू किसके लिए?
चार दिन का मुसाफिर तू ,मौत के बाजार में !
गद्दियाँ शुरुआत से ही ,वफा की दुश्मन रहीं,
कल को यह गद्दी नही होगी,तेरे अधिकार में ।
पीठ में खंजर उतारा ,जब स्वयं के खून ने,
रूह तक घायल हुई, कुछ न किया प्रतिकार में।
चाहे जितना दूध नागों को पिलाए आदमी ,
क्या कभी बदलाव होगा विषैले व्यवहार में ?
बाग ! तेरे रूप के आशिक बहुत मधुमास मे ,
देखना है कौन ठहरेगा यहाँ पतझार में ?
‘गंजरहा’ ताकत कलम की,क्रांति को पैदा करे ,
कौन भारी है बताओ कलम में ,तलवार में ?
————© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी