ग़ज़ल
जिसने चराग़ दिल में वफ़ा का जला दिया
ख़ुद को भी उसने दोस्तों इंसां बना दिया।
घरबार जिसके प्यार में अपना लुटा दिया
उस शख़्स ने ही बेवफा हमको बना दिया।
जो मिल गए हैं ख़ाक में वो होंगे और ही
हमने तो हौसलों को ही मंज़िल बना दिया।
यह है रिहाई कैसी परों को ही काट कर
सैयाद तूने पंछी हवा में उड़ा दिया।
हंस हंस के ज़ख़्म खाता रहा जो सदा तेरे
तूने ख़िताब उसको दगाबाज़ का दिया।
‘निर्मल’ समझ के अपना जिसे प्यार से मिले
उसने वफ़ा के नाम पे धोका सदा दिया।
— आशीष तिवारी निर्मल