लघुकथा – मोलभाव
राधा अपने बेटे के साथ डॉक्टर के पास जाने के रिक्शे की तलाश में सड़क के किनारे खड़ी थी.एक भी रिक्शा खाली नही दिख रहा था. बड़ी मुश्किल से एक खाली रिक्शा दिखा तो राधा ने उसे झट से रोक लिया और पूछा “भैया,,, डॉ.सुभाष क्लिनिक चलोगे”
हाँ चलूँगा।
कितने लोगे?
पचास रुपये।
ठीक है चलो कहकर राधा अपने बेटे के साथ रिक्शे पर बैठ गयी.राधा के बेटे को बड़ा आश्चर्य हुआ.वह मन ही मन कहने लगा आज ये मम्मी को क्या हो गया वह तो हमेशा ही रिक्शेवाले, सब्जीवाले, फेरीवाले से मोलभाव करती है, फिर आज क्यों नही,वह राधा के कान में धीभी आवाज में कहने लगा “मम्मी आज आपने रिक्शे के पैसे कम नही करवाये ,,क्यों?राधा ने मुस्कुरा कर कहा ” बेटे आज से मैंने गरीबों से मोलभाव करना बंद कर दिया,,हम डॉक्टर की फिस से तो मोलभाव नहीं करेंगे ना.जितने रु. कहें उतने तो देने ही पड़ेंगे ना। वो अपने पढ़े लिखे होने की फिस लेते हैं तो ये लोग अपने मेहनत का मेहताना लेते हैं आखिर ये रिक्शेवाला हवाई जहाज के किराए जितना तो नही मांग रहा.”राधा रास्ते भर सोचती रही कि बच्चे हमसे ही सीखते हैं बच्चे के मानसपटल पर मोलभाव कैसे छाया है.तभी क्लिनिक आ गया.राधा ने रिक्शे से उतरकर रिक्शेवाले को पचास रु. पकड़ा दिये.रिक्शेवाला ने खुशी से रु.चूमकर माथे से लगा लिया और जेब में रख लिया.
अपना रिक्शा मोड़ कर वह दूसरी सवारी की खोज में चल पड़ा उसके दिमाग मे भी एक बात चलने लगी कि आज पहली बार बिना मोलभाव की सवारी केसे मिली।
— अमृता राजेन्द्र प्रसाद