बालकहानी : दोस्ती में दरार
बहुत पुरानी बात है। एक वनांचल गाँव था पण्डेल। गाँव से ही बिल्कुल लगा हुआ एक बहुत बड़ा बबूल का पेड़ था। उस बबूल पेड़ पर एक कौआ रहता था। गाँव से खाने की जो भी वस्तु मिलती; पेड़ पर लाता, और आराम से बैठकर खाता था। दिन भर गाँव, नदी-नाले और खेत-खार में घूमता। शाम होते ही पेड़ पर लौट आता। इस तरह कौए का जीवन बड़े मजे से बीत रहा था।
एक दिन सुबह बबूल पेड़ के नीचे एक बिल्ली आई। देखा, कौआ मस्त बढ़िया अंगाकर रोटी का मजा ले रहा है। बिल्ली के मुँह में पानी आ गया। कौए के पास जाकर बोली- “म्याऊँ.. म्याऊँ…! कौआ भाई ! क्या बात है, कहाँ से तुम्हें गर्म रोटी मिल गयी इत्ती सुबह।
“गाँव से लाया है मैंने इसे। बहुत अच्छी लगी है जी।” कौए ने बिल्ली को निहारते हुए कहा।
“तुम तो अकेले ही खा रहे हो। यह अच्छी बात नहीं है कौआ भाई।” बिल्ली मस्का मारते हुए बोली।
“ठीक है भाई; तुम भी खाओ।” कौए ने रोटी का एक टुकड़ा बिल्ली के लिए नीचे गिरा दिया। इस तरह कौआ रोज चोंच में कुछ न कुछ दबा कर लाता; और पेड़ पर बैठकर खाता था। बिल्ली भी ऐन वक्त पर आ जाती थी। फिर उसे भी मुफ्त में खाने के लिए मिल जाता था। यह सब चलता रहा। इस तरह दोनों में दोस्ती हो गयी।
एक शाम की बात है। कौआ रोटी का एक बड़ा टुकड़ा लेकर पेड़ पर आया। रोटी बड़ी स्वादिष्ट थी; घी जो चुपड़ा हुआ था उसमें। मन भर खाया। बचे हुए टुकड़े को पेड़ पर एक कोटरनुमा जगह में छुपा दिया सुबह के लिए। वैसे भी कौए में यह प्रवृत्ति होती ही है। कुछ समय के बाद बिल्ली आई। आते ही फरमाया- “आज तो एक घर जी भर कर दूध पीया। मजा आ गया। क्या स्वाद था मित्र। मन तो कर रहा था कि तुम्हारे लिए भी ले आऊँ; पर लाते नहीं बना।” तपाक से कौआ बोला- “कोई बात नहीं मित्र। एकाध दिन मैं खुद तुम्हारे साथ चलूँगा रोटी पकड़कर; फिर मस्त हम दोनों दूध-रोटी खायेंगे। अभी गाँव में जाओ मित्र। एकाध घर आराम करना। रात हो रही है।
“ओम्…! ठीक है भाई।” डकार मारते हुए बिल्ली गाँव की ओर बस लौटने ही वाली थी कि उसे घी की खुशबू आई। वह ठिठक गयी। बोली- “मित्र ! घी लगी रोटी रखे हो क्या; बड़ी खुशबू आ रही है ?”
कौए ने कहा- “हाँ…हाँ…! मैंने खा ली है। पेट भर गया। एक टुकड़ा कल सुबह के लिए रखी है। कल सुबह आना मित्र, दोनों बाँटकर खायेंगे।”
कौए की घी-रोटी वाली बात सुनते ही बिल्ली का मन ललचा गया। घी की खुशबू उसकी नाक को छू रही थी। “अच्छा चलता हूँ मित्र।” न चाहते हुए बिल्ली गाँव की ओर निकल पड़ी।
बिल्ली गाँव में आ तो गयी, पर उसका मन घी वाली रोटी में ही लगा था। तीन-चार घंटे बीत गये। बिल्ली को नींद नहीं आ रही थी। बस करवटें बदल रही थी। उसका ध्यान बार-बार रोटी की ओर ही जा रहा था। अब तो नहीं रहा गया। वह तुरंत बबूल पेड़ की ओर चल पड़ी।
बहुत रात हो गयी थी। बिल्ली ने देखा कि कौआ चुपचाप सो रहा है। अब तो बिल्ली की नीयत और बिगड़ने में देर न लगी। सोचने लगी कि अच्छा मौका मिला है; सोने पे सुहागा। कौआ मुझे अंधेरे में नहीं पाएगा। रोटी को पकड़ूँगी, और चलती बनूँगी। फिर किसी घर जाकर बढ़िया आराम से बैठकर खाऊँगी। बिल्ली पेड़ पर चढ़ गयी। रोटी की ओर लपकी। अचानक डाली हिल गयी। मामला बिगड़ गया; मतलब कौए की नींद खुल गयी। कौए ने खतरे को भाँप गया। फिर काँव-काँव चिल्लाना शुरू हो गया उसका। उसने बिल्ली को पहचान भी लिया। बिल्ली तुरंत रोटी को पकड़कर अंधेरे का फायदा उठाते हुए पेड़ से चम्पत हो गयी; लगा कि कौआ उसे नहीं पहचान पाया।
दूसरे दिन सुबह बिल्ली पेड़ पर फिर आई। बिल्ली को देखते ही कौए का गुस्सा एंड़ी से माथे पर चढ़ गया। ” काँव… काँव… तू भाग यहाँ से… नहीं तो मार डालूँगा।” कौए की त्यौरी चढ़ी हुई थी।
“क्या बात है मित्र ? आखिर बात क्या है ?” बिल्ली अनजान-सी बनती हुई बोली।
“तुम मित्रता के लायक नहीं हो। तुम दोस्ती के नाम पर कलंक हो। मित्र के साथ ही धोखा।” कौए ने बिल्ली पर एक झपट्टा मारा।
बिल्ली ने बहुत देर तक इधर-उधर की बातें करते हुए अपनी गलती पर पर्दे डालने की बहुत कोशिश की; पर कामयाब न हो पायी। अब उसने जान बचाकर वहाँ से भाग जाना ही उचित समझा। बिल्ली दुम दबाकर भागने लगी। आगे-आगे बिल्ली पीछे-पीछे कौआ। भागते-भागते बिल्ली एक घर में जाकर छुप गयी। कौआ गुस्से से लबालब था। उसने बिल्ली को उस दिन तो क्या; कभी माफ नहीं किया। तभी तो आज तक कौआ बिल्ली का पीछा कर ही रहा है; और इसीलिए आज भी कौआ काँव-काँव करता हुआ बिल्ली को दौड़ाता है। बिल्ली को भागना ही पड़ता है।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”