लघुकथा: बेबस फर्ज़
‘कन्हैया की पढ़ाई छूट गई है इस साल वो अपने सभी दोस्तों से पिछड़ गया है | उसकी मनः स्थिति मुझे ठीक नहीं लग रही |’
मनीषा ने अपने पति श्याम से कहा | किसी गहरी सोच में डूबा हुआ श्याम जैसे अनगिनत संकटों के बादलों में घिरा बैठा था | मनीषा ने दुबारा कांधे को झकझोरते हुए बात दोहराई और साथ में यह भी कहा – ‘मैं जानती हूँ तुम्हारा सारा काम ठप्प पड़ा है न जाने कैसे-कैसे तुम हमारे रोज़ के खर्चे उठा रहे हो ! पिछले साल जैसे-तैसे ज़मीन बेचकर इसकी पढ़ाई जारी रखी | इस वर्ष फीस न दे पाने के कारण जबसे कन्हैया की क्लास बंद हुई है वो बस ऐसे ही अपनी सारी कॉपी-किताबों अलटता-पलटता रहता है, और बड़-बड़ाता है- ‘मेरी अभी ये क्लास है ये पढ़ूँगा- फिर मेरी वो क्लास है वो पढ़ूँगा |’
कभी-कभी उसकी आँखों में भरे आँसू मानो कहते हैं कि- ‘मैं तो इतना अव्वल हूँ पढ़ाई में फिर भी बिना फीस भरे मैं अपनी कक्षा में नहीं जा सकता |’
श्याम – ‘महामारी के चलते मेरे कन्हैया जैसे कितने होशियार बच्चे भीतर-ही-भीतर सिमट गए |’ ( भरे मन से श्याम कन्हैया को निहारता है )
— भावना अरोड़ा ‘मिलन’