ग़ज़ल
बड़ी ये चोट भारी की है मुझ पर,
गुलों ने संगबारी की है मुझ पर।
निकल पाती नहीं मैं इसकी ज़द से,
ये कैसी ख़ुश्बू तारी की है मुझ पर।
मज़ा ये है सितमगर के सितम ने,
इनायत ख़ूब सारी की है मुझ पर।
बना देता है जो पत्थर को देवी,
नज़र ऐसे पुजारी की है मुझ पर।
तेरी यादों ने अपनी ख़ुश्बुओं की,
निछावर रेज़गारी की है मुझ पर।
चुकाना पड़ रही है ज़िन्दगी से,
मुहब्बत ने उधारी की है मुझ पर।
मुझे अब आगे जा के खेलना है,
‘शिखा’ ने ख़त्म पारी की है मुझ पर।
— दीपशिखा