दिल का शीशा ऐसे टूटा, उनकी खुशी रह गई।
शायद मेरी ही चाहत मे, कोई कमी रह गई।
जिंदा हूं कांधों पे, वफ़ा की लाश लिये,
उन्हें क्या कोई मरे,या कि कोई जिए,
उठा लिये गम कि पलकों पे नमी रह ग्ई।
शायद मेरी ही चाहत मे कोई कमी रह गई।
सहमी हुयी धड़कनों को,करार नहीं है,
अब दिल को किसी का, इंतजार नहीं है,
सब जुदा हो गये, मेरी आवारगी रह गई।
शायद मेरी ही चाहत मे कोई कमी रह गई।
मैने सोचा था कभी, कि फूल खिलेंगे,
बहारों में हम तुम कभी,साथ चलेंगे,
दिल की आरजू ,दिल में ही रह गई।
शायद मेरी ही चाहत मे कोई कमी रह गई।
— ओमप्रकाश बिन्जवे ” राजसागर “