लघुकथा – दिमाग का कचरा
“देखो न रजनी, हर तरफ फिर कचरा ही कचरा नज़र आ रहा है…।”
“हां सत्या, जब सरकार ने स्वच्छता अभियान चलाया था, तब लोगों ने कितनी जागरूकता दिखलाई थी और सफाई पर कितना ध्यान दिया था…।”
“पर तभी तक दिया था जब तक सरकार ने जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया था। सभी को फोटो जो खिंचवाने थे अखबार, टी.वी., व्हाट्सएप्प, फेसबुक और दूसरे संचार माध्यमों द्वारा लोगों को दिखाने के लिए। अब जैसे ही सरकार और मीडिया का ध्यान इस मुद्दे पर से हटा है, लोगों ने भी दिखावा करना छोड़ दिया है, और फिर वही पहले जैसी गंदगी और कूड़े के ढ़ेर हो गये हैं हर जगह।”
“हां, ये तो है, ज्यादातर लोग दिखावे के लिए ही ऐसे कार्य करते हैं। सच ही है- जब तक लोगों के दिमागों में कचरा है, वो कूड़ा फैंकने से बाज़ नहीं आएंगे।”
“हां बहन, सबसे पहले तो दिमाग के कचरे को साफ़ करने की जरूरत है, बाहर का तो फिर अपने आप ही हो जायेगा।”
“चलो, मिलजुल कर सोचते हैं कि कैसे इस कचरे को साफ़ क्या जा सकता है?”
— विजय कुमार