महक उठे जग सारा
नदियों सी मैं बहती जाऊं।
घाट-घाट से कहती जाऊँ।
बिना थके, बिना रुके हरदम,
हर सीमा को तोड़ दिखाऊं।।
उजले-उजले आसमान पर,
अपनी एक पहचान बनाऊँ।
भूखे प्यासे व्याकुल जन की,
मैं ठंडे जल से प्यास बुझाऊं।।
रुक जायें जो बीच सफर में,
मंज़िल तक उनको ले जाऊं।
बादल बनकर आसमान से,
धरती पर मैं जल बरसाऊं।।
रंग-बिरंगे सुंदर सुमन खिला,
गाँव, गली, वन सभी सजाऊँ।
मन की सरिता आहत-व्याकुल,
कैसे अपना यह वतन बचाऊ।।
महक उठे जग सारा मेरा,
कुछ ऐसा करके दिखलाऊं।
कठिन डगर है कैसे पहुंचूं,
मधूर सरगम स्वर बन जाऊं।
— आसिया फ़ारूक़ी