लघुकथा : गोश्त की दुकान
“ओ मैनाबाई…! एक नहीं, आज डेढ़ किलो तौल दो। मेहमान आये हैं हमारे यहाँ।” रामरुज मैनाबाई को पाँच सौ का नोट थमाते हुए बोला।
“अरे वाह ! क्या बात है रामरुज… कुछ खास है क्या ?” मैनाबाई ने गोश्त का बड़ा सा टुकड़ा तराजू के पलड़े पर डाला; और मुस्कुरा दी।
“चेंज को रहने दो न मैनाबाई। मेरे को तो तेरे ही यहाँ आना है। रहने दो…रहने दो।” ब्लैक कलर की पैक्ड पाॅलीथिन बैग लेते हुए रामरुज बोला।
“बार-बार लौट-लौटकर देखते हुए रामरुज को देख मैनाबाई ने अपना पल्लू सम्हाला। यह देखकर ऐसा लगता, जैसे पल्लू भी मैनाबाई की देह से खेल रहा हो; और क्यों नहीं, आखिर पल्लू का भी कुछ बनता है। ऐसा लगता है, जैसे ऊपरवाले ने बड़े फुर्सत से बनाया है मैनाबाई को। पाँच फुटिया काया। चौड़ी कमर। सीना तो पूछो ही मत। बड़ा सा गोल चेहरा, जिस पर बड़ी सी चमकती लाल बिंदी। लम्बे-घने सावनिया केश। इकतीस को छूती उमर। वह हँस देती तो एक साथ सैकड़ों मोगरे के फूल झर जाते। करीबन तीन साल से बैठ रही थी मैनाबाई दुकान पर। उसके बैठते ही दुकान खूब चल पड़ी थी।
आज रामरुज की पत्नी जमुना बोली- “जाओ तो मार्केट, ले आओ सब्जी। अच्छी होनी चाहिए, दो-तीन लेगपीस बिल्कुल डलवा देना। दस बजे तक भैया-भाभी बच्चों को लेकर आने वाले हैं। और हाँ…वहीं से ही लाना, जहाँ से हमेशा लाते हो।”
“लेकिन… दुकान तो सप्ताह भर से बंद है। आज तू चली जा, किसी और दुकान से ले आना।” बाथरूम से निकलते हुए रामरुज बोला।
जमुना मार्केट गयी। कुछ हरी सब्जियाँ खरीदी। फिर गोश्त की दुकान पर गयी। गोश्त तौलवाया। घर लौटते वक्त बोली- “दुकान बंद थी क्या… आज ही खुली है क्या ?”
“नहीं तो…दुकान बंद नहीं हुई है मैडम। अब मेरी घरवाली नहीं बैठती; हफ्ता भर हो गया।” दुकानदार बोला।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”