छुई -मुई सी होती है पत्तिया
कभी छू के देखी नहीं
डर था कहीं प्रेम की प्रीत
बंद न हो जाए पत्तियों सी ।
घर -आँगन में बिखेरे दानों को
चुगती है चिड़ियाएँ
चाहता हूँ आहट न हो जाए
खनक चूड़ियों की
कर देती उनको फुर्र ।
प्रेम की तहों में
ढूँढता हूँ यादों की कशिश
डर है मुझे किताब में
रखे गुलाब की सूखी पंखुड़ियों का
कही टूट कर बिखर न जाए ।
— संजय वर्मा “दृष्टि”