लघुकथा

लघुकथा – पैकेज सुख

मैं मुम्बई से पटना अपने एक दोस्त की शादी में आया था। माँ ने आते समय बोली थी कि अपने फुआ- फुफा से समय निकाल कर अवश्य मिल लेना । इसलिए मैं ओला बुककर फुआ के घर तक आ गया था। बिलकुल सन्नाटा वहाँ व्याप्त था। रोड भी खाली-खाली.. मैं बड़े से गेट पर जाकर घंटी बजा रहा था। थोड़ी देर तक घंटी बजती रही लेकिन कोई आवाज नहीं आ रही थी। मैं सोच में पड़ गया था कि शायद कोई घर में नहीं हैं।तभी किसी के चलने की आहट सुनाई पड़ी तो देखा कि फुफाजी बड़ी कठिनाई से धीरे-धीरे गेट के करीब आ गये थे।मुझे पहचानने में थोड़ी उन्हें कठिनाई भी हो रही थी। लेकिन जब मैंने पापा का नाम बोला तो खुश होते हुए बोले -“आ जाओ बेटा ! कैसै आना हुआ”।मैं बोला- “मैं अपने दोस्त की शादी में आया था। माँ ने आपलोग से मुलाकात करने को बोली थी। इसलिए शादी खत्म होते ही सीधे यहाँ चला आया”।अब मैं फूफाजी से बात करते-करते घर के अंदर प्रवेश कर गया था।

वे बोले-“क्या करता हैं दोस्त तुम्हारा! कहाँ रहता हैं”? मै बोला- “मेरे शहर में ही मेरे साथ नौकरी करता हैं”। तबतक फुआ भी मेरे पास आ गई थी । अब हमलोग डाइंग रूम में बैठकर गप्पें करने लगे थे। अब पहला सवाल उन दोनों का मेरी नौकरी को लेकर था। एक साथ दोनों बोल पड़े- किस कम्पनी में काम करते हो? कितने का तुम्हारा और तुम्हारे दोस्त का पैकेज हैं।फिर अपने दोनों अपने बेटे और बेटी के बारे में बताने लगे थे। बेटी- दामाद विदेश में बस गये हैं। तीन-तीन मकान खरीद रखा हैं। दोनों बेटे भी बड़े-बड़े शहर में ही वश गये हैं,साथ ही एक सवाल भी दाग दिया था कि तुम्हें भी कुछ अच्छी नौकरी करनी चाहिए।

जी ..जी मैं उनलोगों की हर बात में हामी भरता जा रहा था। मैं उनदोनों की पुरी बात इत्मीनान से सुनने के बाद उनसे बोला-” अरे जब वे लोग इतना कमा रहे तो आप क्यों अकेले यहाँ रहते हैं। अब तो आपलोगों को इस उम्र में अपने लोगों के साथ रहना चाहिए। यहाँ तो अकेले आप दोनों को बहुत परेशानी होती होगी”।मैं उनकी आँखों में झांककर देखा तो इस सवाल का कोई जबाव शायद उन्हें नहीं मिल पा रहा था। फिर मैं बोला-“भैया लोग तो आते ही होंगे”। फुआ बोली-“अरे कहाँ!उनलोगों को समय मिल रहा हैं”।
मैं धीरे से बोला-“मैं भी कुछ दिनों विदेश में नौकरी किया।लेकिन एक ऐसा वक्त आया कि मेरे अपाहिज पिताजी और माँ की सुनी आँखे मुझे बार-बार वापस अपना घर बुला रही थी। मैं भी सोचा कि दौलत तो फिर कमा लूंगा। लेकिन अपने बुजुर्ग माँ-बाप की सेवा इस जिंदगी में कभी नहीं कर पाऊंगा। मेरा भी विदेश का मोह भंग हो गया था… और जब वापस अपने घर आया तो जो चमक माता-पिता की आँखों में देखा उसे मैं ताउम्र नहीं भूल सकता और उनके खुशी के आगे मुझे हर वो मूल्यवान चीजें तुच्छ नजर आने लगी थी, जो मेरे माता-पिता को चैन की नींद सोने भी न दें। अगर मैं गलत हूँ तो आप बतायें”।
अब उन दोनों के नम होते आँखों को मैं देख रहा था….।।

— संजय श्रीवास्तव

संजय श्रीवास्तव

पिता का नाम-स्व.मिथिलेश्वर प्रसाद प्रकाशन विवरण संक्षिप्त में - मेरी रचनाएँ लघुकथा,आलेख, कविता विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में यथा तारिका, दर्शन मंथन, बाजार पत्रिका, बेगूसराय टाइम्स,मानवी, वैचारिक कलमकार, परिजात कल्प, कमलदल, सम्मार्जनी,संध्या प्रहरी, पहूंच, तथा गृह पत्रिका नालन्दा,अर्जन, पाटलिपुत्र में आदि में प्रकाशित हो चुकिं हैं। साथ ही, "न्यू इंडिया और हम" कविता संकलन में भी प्रकाशित हो चुकी हैं.मेरी लघुकथाएं साझा संकलन "लघुकथा के रंग" और "संचिता " में प्रकाशनार्थ हैं। जन्मतिथि-10/01/1963 शिक्षा-एम. ए (हिन्दी साहित्य) लेखन की विधाएं-कहानी,लघुकथा और कविता व्यवसाय-सरकारी नौकरी प्रशासनिक अधिकारी, दी न्यू इंडिया एश्योरेंस कं.क्षेत्रीय कार्यालय, पटना पता- किसान कोलोनी, फेज-2 प्रगति पथ, अनीसाबाद, सत्या गैस एजेन्सी के नजदीक पटना-800002 बिहार मोबाइल नं-9835298682 ईमेल एडे्स- [email protected]