लघुकथा

लघुकथा : फिक्र

“चलो न माँ हमारे साथ सरगुजा। एक साथ रहेंगे हम सब। मेरी नौकरी ऐसी है कि मैं तुम्हें मिलने  बार-बार नहीं आ सकता। तुम यहाँ अकेली रहती हो। यह मुझे अच्छा नहीं लगता। मुझे तुम्हारी बड़ी फिक्र लगी रहती है। वहाँ तुम्हारे लिए हर सुविधा है माँ। हर चीज उपलब्ध है।” राजेश के कहने पर सत्तरवाँ बंसत देख चुकी रूखमणी बोली- “राजू ! बेटा ! मैं तो यहाँ बिल्कुल अच्छी हूँ। तुम लोग वहाँ खुश हो; मैं भी यहाँ खुश हूँ। मुझे तुम्हारे साथ जाने में कोई दिक्कत नहीं है बेटा। पर अगर मैं तुम्हारे साथ चली जाऊँगी तो इस घर की क्या हालत होगी। इसकी देखभाल कौन करेगा। इसे मैं और तुम्हारे बाबूजी बड़ी मेहनत से बनाये हैं। बड़ी मुश्किल से यह छोटा सा आशियाना बना है बेटा। जाते-जाते उसने मुझे इसकी देखभाल करने को कहा है। कहा है मुझसे कि अपने जीते-जी इस देहरी को कभी मत छोड़ना। रोज घर भर को बुहारती हूँ। हर कमरे और आँगन को रोज लिपती हूँ। हर आठवाँ दिन हर दीवार के नीचे को पींवरी छुई से खुँटियाना पड़ता है। दीवार पर टँगे तुम्हारे बाबूजी के फोटो पर मकड़ी जाल बना लेती है; उसे रोज साफ करती हूँ। तभी मुझे चैन आता है। अगर मैं तुम्हारे पास चली जाऊँगी तो तुलसी में जल कौन डालेगा बेटा। पानी के बिना तुलसी मुरझा जायेगी; मर जायेगी। कभी-कभी बाड़ी के दौना के पौधे पर भी पानी डालना पड़ता है। बेटा, ये गइया जो है ना; शाम को घर आते ही मुझे नहीं देख खूब रम्भाती है। इसका बछड़ा दिन भर में चार-पाँच बार अपने शरीर को खुजलवाने मेरे पास आकर खड़ा हो जाता है। मुझे तरिया में नहाना अच्छा लगता है राजू। एक और खास बात यह बेटा कि इस घर में मुझे तुम्हारे बाबूजी के होने का एहसास होता है।” आज तो रूखमणी बस बोलती ही जा रही थी; और राजेश उनकी बातों को सुनता जा रहा था। माँ-बेटा दोनों बड़े फिक्रमंद लग रहे थे।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”

टीकेश्वर सिन्हा "गब्दीवाला"

शिक्षक , शासकीय माध्यमिक शाला -- सुरडोंगर. जिला- बालोद (छ.ग.)491230 मोबाईल -- 9753269282.