दोहा इक्कीसा
पतझड़ और बसंत सा,इस जीवन का रूप।
जब जैसा मौसम रहे,मानें उसे अनूप।
ऋतु बसंत अब अंत है,बढ़ने लगा है ताप।
धूप डराने पर तुली,करो शीत का जाप।
युग-युग से ऐसे चले,यह जीवन संसार।
मनचाहा मिलता नहीं,करो इसे स्वीकार।
कर लो चाहे कोशिशें,घूमो देश-विदेश।
मनचाहा मिलता नहीं,सत्य यही संदेश।
मनचाहा मिलता नहीं,धन वैभव सम्मान।
कर्म करें सद्भाव से,फल देगा भगवान।
कठिन परीक्षा सत्य की,होती सॉंझ विहान।
झूठ अंत में हारता,विधि का यही विधान।
कठिन परीक्षा सत्य की,हर युग की है मॉंग।
सत्य जीतता है सदा,झूठ अड़ाता टॉंग।
भले देर से ही सही,सच को मिलता मान।
कठिन परीक्षा सत्य की,देता हर इंसान।
धूम इधर नवरात की,उधर शुरू रमज़ान।
अपना-अपना धर्म है,सबका हिन्दुस्तान।
रूस चाहता है वहॉं,सत्ता का सुख भोग।
जंग छिड़ी यूक्रेन में,डरे-डरे से लोग।
मॅंहगाई बढ़ती गई,ज्यों संक्रामक रोग।
मुश्किल अब जीना हुआ,डरे-डरे से लोग।
है उपवास,उपासना,संस्कार के अंग।
धर्म,कर्म,आचार से,जीवन है खुश रंग।
कुछ लोगों की चाल से,दिल जाता है कॉंप
फितरत ऐसी वो रखें,दो मुॅंह का ज्यों सॉंप।
पूजन-अर्चन कीजिए,मन को करिए शुद्ध।
भक्ति-भाव से जीतिए,अपना जीवन-युद्ध।
आती है नव कोंपले,पतझड़ के पश्चात।
सुख-दुख जीवन में सदा,जैसे दिन औ’ रात।
कॉपी और किताब का,लगे जहॉं बाजार।
कीमत ऊॅंची में चले,शिक्षा का व्यापार।
धन,दौलत,वैभव नहीं,जाते तन के साथ।
रे!मन अब तो मान जा,पकड़ न इनका हाथ।
रे !मन अब तो मान जा,यहॉं न सच्चा प्यार।
स्वारथ में सब लीन हैं,याद नहीं उपकार।
दो दिन की माया सभी,दो दिन की है ठाठ।
रे !मन अब तो मान जा,कर ले पूजा पाठ।
मॅंहगाई के नाम पर,मुखर बहुत थे कौन।
कहॉं गए वे रहनुमा,आज सभी क्यों मौन।
जीवन में रखिए सदा,साधारण ही चाह।
उलझी जितनी चाहतें,मुश्किल उतनी राह।
— बिनोद बेगाना