तलाक…उफ्फ से आह तक का सफर
तलाक…. उफ्फ से आह तक का सफर
( लेख- (महेश कुमार माटा)
तलाक, ये शब्द सुनने में कुछ यूँ लगता है जैसे विवाह के उपरांत उपजी किसी गम्भीर समस्या का अंत हो। विवाहोपरान्त उपजी “उफ्फ” का एक सफल इलाज हो। किंतु उसकी “आह” जीवन भर सुनाई देती है।
लाजपत नगर की रहने वाली निशा अपने मायके मे अपनी इकलौती बेटी कायरा के साथ रहती है। उनके तलाक को 6 साल बीत चुके हैं। जब तलाक हुआ था तो बेटी की कस्टडी निशा को मिली थी। निशा से बात करने पर पता चला कि तलाक के बाद उसने अपनी बेटी को बाप के साये से भी दूर रखा है। वो नही चाहती कि उसके बाप से कभी भी उसकी बेटी से मुलाकात हो। तलाक की वजह पूछने पर निशा ने बताया कि उसके पति बेवजह उसपर सन्देह करते थे। आये दिन हाथ उठाते थे और इस बहाने झगड़ा करते थे कि उसका किसी के साथ अनैतिक सम्बन्ध है। बातों बातों में निशा ने बताया कि उसके पति की स्वयं ही किसी अन्य महिला के साथ सम्बन्ध था लिहाजा वो निशा पर उल्टा आरोप लगा कर लड़ाई का बहाना ढूंढते थे और तलाक ले लिया। तलाक के तुरंत बाद उसके पति ने दूसरी शादी भी कर ली। जब मैंने निशा से उसकी अपनी शादी के बारे में बात की तो उसका उत्तर सुनकर मेरी आँखे भीग गईं-
“जब एक शादी नही बची तो क्या गारंटी है दूसरी बच जायगी। फिर मेरे लिए मेरी बेटी मेरा सब कुछ है। दूसरा आदमी कभी वो प्यार नही दे सकता जो अपने माँ और बाप देते हैं। इसलिए मेरे लिए दूसरी शादी के बारे में सोचना भी उचित नही”।
जब निशा से मैंने पूछा कि क्या आपकी बेटी को अपने बाप की याद आती है? ये सुनकर निशा की आँखों से आँसू छलक उठे। 10 सेकंड तक तो आवाज नही निकली। फिर खुद को संभालते हुए बोली – ” वो तो 6 साल से गुमसुम है। हमारे हज़ार झगड़े हुए हों मगर बाप बेटी का प्यार सब को पता था। मेरी बेटी तो आधी रात को उठ उठ कर पापा पापा चिल्लाती है मगर….. इतना कहकर फफक कर रो पड़ी निशा”।
कचहरी की नौकरी करते हुए भी आए दिन ऐसे कुछ मामले दृष्टिगत हो ही जाते हैं। रोज़ की भाँति उस रोज़ भी मैं कचहरी से कार्य समाप्त करके बाहर की ओर प्रस्थान कर रहा था। प्रथम तल से भू तल की ओर जाते हुए मुझे जो दिखाई दिया वो घर जाकर भी मेरे मस्तिष्क से ओझल नहीं हो पा रहा था। घटना कुछ इस प्रकार थी कि एक सरदार जी, जो शायद उस दिन अपने व्यक्तिगत मामले में या हो सकता है उनके और उनकी पत्नी के मध्य कोई पारिवारिक विवाद हो, के सिलसिले में फैमिली कोर्ट आए होंगे। सरदार जी के हाथ मे बड़ी सी थैली थी जिसमे ढेर सारे खिलौने थे। आगे आगे एक महिला और महिला की गोद मे छोटी सी प्यारी सी बच्ची थी। सरदार जी नम आँखों से उस बच्ची को बार बार एक ही बात कहे जा रहे थे “लै लै मेरा बच्चा लै लै, देख तेरे वसते किन्ने सारे खडोने लियायां” (यानी ले ले मेरी बच्ची ये सारे खिलौने मैं तेरे लिए लाया हूँ)।
उनकी रुवांसी आवाज और शैली से इतना अंदाज़ा हो रहा था कि वो महिला और पुरुष परस्पर पति पत्नी हैं और माँ की गोद मे जो बच्ची थी वो उन्ही की बेटी। कचहरी से तारीख भुगतने के पश्चात सरदार जी अपनी बेटी को वो खिलौने देना चाहते थे मगर विवश थे। मेरी दृष्टि उस महिला पर भी पड़ी। उसकी आँखें भी नम थीं। आँखों के नीचे कालिमा ये संकेत दे रही थी कि वो महिला भी रो चुकी है। बच्ची एक पल माँ को देखती। दूसरे पल पिता को देखती। फिर खिलौनों पर नज़र जाती फिर माँ को देखती। शायद उस माहौल में उसे खिलौने स्वीकार करने की अनुमति नही थी। सरदार जी पीछे पीछे तेज़ गति से चलते हुए अपनी बेटी को छूकर प्यार करना चाहते थे। बस कुछ ही क्षणों में एक सफेद रंग की गाड़ी का दरवाजा खुलता है और माँ बेटी गाड़ी के अंदर। 10 सेकंड बाद गाड़ी नज़रों से ओझल हो चुकी थी। सरदार जी दोनों हाथों से आँखें पोंछते हुए धीरे धीरे कदम बढ़ाते हुए मेरी नज़रों से ओझल हो गए।
इस घटना से मुझे ये तो यकीन हो गया था कि दोनों पति पत्नी में कोई विवाद था और उसी विवाद के कारण पति पत्नी और बच्ची दोनों ही आँसुओं को समेटने मे लगे हुए थे। आखिर सम्बन्ध विच्छेद करना ही है तो इसकी कीमत आँसुओं से तो चुकानी ही पड़ेगी।
उपरोक्त घटना के बाद मुझे अपनी उस गली की एक महिला का भी ध्यान आया जो हमारे ही घर के ठीक 4 घर छोड़कर रहती थी। उस महिला की उस समय आयु 50 वर्ष की रही होगी। उनका एक बेटा और एक जवान बेटी थी। उनके घर मे रोज़ उस महिला की अपने पति से झगड़े की आवाज आती थी। उसका पति रोज नशे की हालत में घर ही रहता था। कोई दिन ऐसा नही था जब उसने अपनी बीवी पर हाथ न उठाया हो। गालियाँ देना मार पीट करना उस आदमी का रोज़ का काम था। कई बार उस महिला का बेटा भी बचाव करने आता था मगर बाप का हाथ उठ जाता और वो वापिस चला जाता। मेरी कई बार उस महिला से बात हुई।
“आंटी जी आप रोज अंकल जी से मार खाते हो उनके विरुद्ध कोई कदम क्यों नही उठाते”- मैं अक्सर उस महिला से यही प्रश्न करता था। उत्तर में एक ही वाक्य सुनने को मिलता -“25 साल हो गए देखते देखते आज तक नही सुधरे तो ये अब क्या सुधरेंगे”।
मैं कई बार सोचता था कि अगर पति या पत्नी में एक गलत है तो दूसरा इंसान उसे इतने इतने साल सह कैसे सकता है। एक दिन नही महीना नही अपितु कई कई साल। आश्चर्य होता था। यूँ ही एक दिन मैं रोज की भाँति आफिस के लिए तैयार हो रहा था तो बाहर गली में शोर सुनाई दिया। बाहर झाँका तो उन्ही महिला के घर के बाहर भीड़ लगी थी। आज उनके बेटे ने अपनी माँ के साथ मिलकर उस आदमी को घर से बाहर निकाल दिया था और दोबारा घर न आने की चेतावनी भी दे दी थी। उस दिन उस महिला का रौद्र रूप देखा था मैंने।
“25 साल हो गए इस आदमी की मार खाते खाते आखिर कब तक पिसती रहूंगी मैं। घर मे जवान बेटी रोज ये सब देखती है वो भी कब तक ये सब देखकर गूंगी बनी रहेगी। नही अब ओर नही। अब इस आदमी को हमने साथ नही रखना”- और फूट फूट कर रोने लगी।
उस दिन के बाद उस महिला का पति उस गली में नही दिखा। कुछ समय बीत जाने के बाद पूरे परिवार ने उसे ढूंढने की कोशिश की किंतु आज तक उसका कोई अता पता न चला। उनके बेटे और बेटी की भी शादी हो चुकी है मगर वो महिला अपने कमरे में अकेली पड़ी रहती है बस कुछ पुरानी यादों के साथ।
“तलाक”.. यह शब्द सुनने में नही जानता कितना संवेदनशील होगा मगर यथार्थ के धरातल पर इसके कई मायने कई आयाम और कई परिणाम हो सकते हैं। तलाक, पति और पत्नी में चली आ रही किसी दीर्घकालीन समस्या का समाधान तो निस्संदेह हो सकता है, किंतु इस समाधान से उपजे अन्य दुखदाई पृष्ठों को खुलने की एक नई कड़ी उत्पन्न होती है। इस श्रृंखला में सबसे कमजोर कड़ी बनती है वो सन्तान जिसे माँ या बाप में से किसी एक को खोना पड़ता है। माँ के साथ हों तो बाप को खोना होगा और अगर बाप का साथ हो तो माँ को खोना होगा। अधिकतर तलाक के बाद माँ और बाप अपने जीवन मे आगे बढ़ जाते हैं मगर सन्तान के जीवन का एक अध्याय यहीं खत्म हो जाता है। उस प्यार, उस स्नेह और उस देखभाल से जीवन भर वंचित रह जाते हैं जिसके वो अधिकारी होने चाहिए।
भारत मे जब तलाक के मामलों की बात करें तो सबसे अधिक तलाक के मामले उस राज्य से हैं जो साक्षरता में सबसे आगे है, यानी केरल राज्य। उसके बाद महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और हरियाणा हैं। दिल्ली छठे स्थान पर आती है। एक बात और जो ध्यान केंद्रित करने वाली है वो ये की दिल्ली की साक्षरता दर 90% से अधिक है। जब तलाक के मामलों में, जनसंख्या में और साक्षरता दर को आपस मे जोड़ कर देखें तो एक बात स्पष्ट हो जाती हैं कि जहँ साक्षरता अधिक है वहाँ तलाक के मामलों की सँख्या भी अधिक है। ग्रामीण और निरक्षर समाज मे तलाक के मामलों की सँख्या नगण्य है।
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य, जिस पर शायद ही किसी का ध्यान गया होगा वो यह कि भारत देश के वर्तमान वातावरण में, समस्यामयिक सांस्कारिक परिदृश्य में, अधिकांश औरतें या कहीँ कहीं पुरुष भी जीवन भर उस रिश्ते को ढोते हैं जिस रिश्ते में उन्हें केवल प्रताड़ना के अतिरिक्त कुछ नही मिलता। ये लोग तलाक के बारे में सोचते भी नही। किंतु वास्तव में जो तलाक होते हैं ये वो तलाक होते हैं जिनके कोई आधारभूत कारण ही नही होते। अधिकतर ऐसे मामलों में केवल एक ही कारण होता है वो है रिश्तों में उपजा सन्देह। सन्देह का ये विष अच्छे खासे रिश्ते को लील जाता है। जिसका परिणाम न केवल पति पत्नी अपितु संतान भी भुगतती हैं ।
बात सोचने की है। सम्बन्ध विच्छेद का विकल्प क्या केवल आपसी सन्देहों का निवारण करने का पर्याय है? सम्भवतया नही। कोई भी रिश्ता विश्वास पर टिका होता है। जहाँ विश्वास खत्म हो जाता है वहाँ रिश्तों का अस्तित्व खत्म हो जाता है। मार पीट शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न अथवा दहेज उत्पीड़न आदि वो कारण हो सकते हैं जिनके आधार पर तलाक होने चाहिए। किंतु शादी के कई वर्षों बाद जब केवल संदेह जैसे आधार पर तलाक लिए जाते हैं तो ऐसे रिश्तों का सबसे अधिक गम्भीर परिणाम बच्चों को भुगतना पड़ता है। पति पत्नी अगर 10 या 20 साल साथ रह सकते हैं तो आगे भी रह सकते हैं। अगर व्यक्ति गलत हों तो 1 दिन भी साथ क्यों रहना। तलाक जैसे गम्भीर विषयों पर सोचने से पूर्व अपनी संतानों के भविष्य और उनपर पड़ने वाले परिणामो पर विचार करना आवश्यक है। तलाक का विकल्प आवश्यक है। विवाह के पश्चात दोनों में से एक पक्ष भी गलत हो तो मुझे नही लगता कि जब तक कोई गम्भीर विवशता न हो उस रिश्ते को ढोने की आवश्यकता है। किंतु शादी के 10, 15 अथवा 20 साल बाद जब पति पत्नी तलाक लेते हैं तो आश्चर्य होता है कि अब तक साथ रहने का प्रयोजन क्या रहा होगा। अचानक ही क्या हमें कोई इतना गलत लगने लगता है कि हम उसके साथ एक पल नही रहना चाहते और उसका परिणाम भुगतने के लिए बच्चे रह जाते हैं।
अगर अपने देश की समाजिक संरचना की बात करें तो जो महिलाएं आत्मनिर्भर नहीं वो जीवन भर मारपीट सहती हैं लेकिन तलाक का निर्णय नही ले पाती। जबकि तलाक का वास्तविक विकल्प इनके लिए होना चाहिए। किंतु यहाँ तलाक होते भी हैं तो ऐसे कारणों पर जो कि वास्तव में अस्तित्व ही नही रखते। चरित्र पर सन्देह सबसे अहम कारण माना जाता है।
निस्संदेह, तलाक को हम एक विकल्प के रूप में चुन सकते हैं किंतु हमे ऐसे निर्णय लेने से पूर्ण सभी परिदृश्यों पर विचार करने होगा। क्योंकि पति या पत्नी अगर तलाक के किये कदम बढ़ाते हैं तो मानसिक रूप से स्वयं को तत्पर करके ही बढाते हैं। किंतु उसके पश्चात जो “आह” उत्पन्न होती है वो आह उनके उन बच्चों की होती है जो उस परिस्थिति से निपटने को तैयार ही नही होता। लिहाजा उन्हें माँ या बाप में से किसी एक को खोना पड़ता है। कोई संकोच नही मुझे यह बात कहने में कि किसी अपने की मौत तो हम से सकते हैं किंतु माँ या बाप के जीवित रहते हुए एक को भी खोना असहनीय होता है। बहुत ही असहनीय। इसलिए तलाक को जिंदगी की “उफ्फ” का निदान ही नही बल्कि उस निदान से निकलने वाली “आह” का भी अहम कारक माना जाएगा।
—–महेश कुमार माटा,
अवर न्यायिक सहायक
पश्चिमी जिला
कक्ष संख्या 240, तीस हजारी न्यायालय, दिल्ली
दूरभाष 9711782028
दिनाँक 09.04.2022