अपने खुदगर्ज सवालो से डर लगता है।
बच्चों के मासूम सवालों से डर लगता है।
जो आज हुआ बाजारों में,क्या वही कल होगा।
बच्चे तरसेंगे रोटी को,क्या बंद सफल होगा।
मजदूर है जी,हडतालों से डर लगता है।
जमीर ऐसा गोया कि हाथों से फिसलती रेत।
रक्षक ही भक्षक बने,बागड खा गई खेत।
यारब,अब तो घोटालों से डर लगता है।
बिक गई अस्मत,फिर सच्चाई नीलाम हुई।
द्रौपदी का चीरहरण, फिर सीता बदनाम हुई।
बन जाए न नासूर, छालों से डर लगता है।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”