सम्मान
भोला प्रसाद जी की तेरहवीं थी। सेजदान हेतु परम्परानुसार उनकी सुविधा और पसंद के सारे सामान सजा दिए गए। वैसे उनकी उम्र अस्सी वर्ष से भी ज्यादा थी। इसलिए उनकी मृत्यु का विशेष मातम तो नहीं था, पर अपनों के जाने का दुख तो था ही। उनकी मृत्यु के बाद उनके सबसे बड़े और जिम्मेदार बेटे को परिवार का उत्तराधिकारी बनाने के लिए पगड़ी की रस्म निभाई जा रही थी।
भरे समाज के बीच जब उनके बड़े बेटे मोहन बाबू को परिवार के मुखिया की सांकेतिक पगड़ी सौंपी गई, तब परिवार के सभी लोगों के चेहरे पर सुरक्षा और संतोष के भाव थे। मोहन बाबू की आंखें सभी की ओर कृतज्ञता भरी नजर से देखती हुई माँ पर ठहर गईं। पिताजी की मौत ने माँ को भीतर से तोड़ दिया था। जीवन के अंतिम दिनों में जीवनसाथी के साथ छूटने का दर्द माँ के चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था।
पल भर को पगड़ी हाथ में लेकर मोहन बाबू कुछ सोचते रहे। फिर वे अपनी माँ की ओर बढ़े और परम्परा को सार्थक करते हुए उन्होंने पगड़ी माँ के चरणों में समर्पित कर दिया- “माँ…. पिताजी के बाद इस पगड़ी की वास्तविक उत्तराधिकारी तो आप ही हैं”
बेटे द्वारा परिवार की मुखिया का सम्मान पाकर माँ की आंखों से खुशी के आंसू झर-झर बहने लगे।
— विनोद प्रसाद