कविता

मैं तुम्हें क्या ही दे सकती हूँ?

मैं तुम्हे क्या ही दे सकती हूँ? सब तो है तुम्हारे पास,
मैं क्या ही दे सकती हूं उसके अलावा ।
मेरे पास देने को कुछ भी तो नही है तुम्हे
सिवाय प्रेम के , और एकदम निस्वार्थ प्रेम के ।
मैं  तो  खुद खाली सी होती जा रही हूं , जैसे जल भरी सुराही में हो कोई छिद्र ।
मैं तुम्हे क्या ही दे सकती हूं सिवाए मुझमें बचे कुछ एहसासों के जो बचे कूचे नीर जैसे हैं ।
मेरे पास कुछ भी तो नही है,
जो मैं तुम्हे दे सकू,
मैं तुम्हे केवल अपना वक्त दे सकती हूं,
जो है कुछ तुम्हारे इंतजार के लिए और कुछ बाकी तुमसे इजहार के लिए ।
मैं तुम्हें क्या ही दे सकती हूं,
 ना कोई शौक तुम्हारे और ना ही कोई ऐब हैं।
मैं तुम्हें क्या ही दू ? मेरे पास  बस एक दिल  है, जो कुछ बंजर सा होता जा रहा है और बाकी में बसेरा तुम्हारा है ।
मेरे पास कुछ भी तो नही है,
जो मैं तुम्हे दे सकू,
मैं खुद उलझी हुई हूं अपनी उलझनों में,
और सुलझनो में केवल सहारा तुम्हारा है ।
मैं तुम्हे क्या ही दे सकती हूं
ना तुम्हारी कोई इच्छा, न ही कोई
उपहार लेने की  तुम्हारी चाह है,
मैं तुम्हे क्या ही दू , मेरे पास बस  मेरा कांधा है
 जिसका कुछ हिस्सा मेरे दिल के बोझ तले कुछ दब सा गया है ,और कुछ  हिस्सा
तुम्हारे  तकलीफ में  सिर रखने से बच सा गया है।
मेरे  पास कुछ भी तो नही है
जो मैं तुम्हे दे सकू,
मैं दे सकती हूं तो
केवल अपना वजूद और सर्वस्व
तुमको, जो कि छलनी है , कुछ घावों से
और कुछ तानो से  , बाकी  जो बचा है
वो खूबसूरत है ,तुम्हारे एकमात्र गले लगाने से ।
— दिव्या ग्रोवर

दिव्या ग्रोवर

गीता कालोनी, गाँधी नगर ईस्ट, दिल्ली 31