बंदनवार
सर्जी के घर से बहुत तेज आवाज़ आ रही थी सिसकियाँ भी जैसे मुँह में घोटने के बाद सहन शीलता के दुर्ग को तोड़ बह निकलीं थीं ।और भी आवाज़ें साथ थी ,जैसे कोई पुरुषत्व के पुरस्कार को आज ही प्राप्त करना चाहता हो ।
सभी आस पास वाले उस घर की तरफ़ देखने लगे ।जानते थे, अहम ने फिर कमजोरी को बली बना संतुष्ट किया है ।थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला ।दूध वाले को हँस कर जवाब दे रही थी ,
“भय्या ये नहा रहे हैं ।थोड़ी देर बाद आना पैसे मिल जाएँगे ।”
हँस कर कहते हुए इज्जत का बंदनवार सजा भीतर चल दी ।
— सावित्री शर्मा ”सवि“