पर्यावरण के लिए सिर्फ एक दिन ?
आज पार्यावरण दिवस है ,लोग एक छोटा सा पेड़ लगाते हुए एक फोटो किसी आनलाइन प्लेटफार्म पर डालकर अपने को प्रकृति प्रेमी घोषित करेंगे ।
यह प्रकृति प्रेम नही है ,प्रकृति प्रेम तो गाँवों मे होता था।
हाँ, अब वहाँ भी शेष नही बचा ,यह दुख और चिंता का विषय है ।
हर गाँव के चारो ओर दो चार बाग होते थे ,उनसे किसी को कोई आय नही होती थी ,सिवाय फल और छाया के ,मगर उन बागों से किसी को कोई आय की अपेक्षा भी नही रहती थी ।
उन बागों का अपना निजी अस्तित्व था,इतिहास होता था उनका ।वो अपनी घनी छाया में कैद किये होते थे ,ढेरों प्रेम कहानियाँ , ढेरों किस्से किवंदतियां।
हर गाँव के आस पास कोई बरगद, पीपल ,पाकड़, या नीम का पेड़ होता था ,जिस पर या तो कोई गाँव का देवता यथा बरम बाबा ,नटवीर, गाँवट भवानी का वास होता था ,या फिर कोई भूत प्रेत का निवास होता था , यह पेड़ अपने से जोड़े रहते थे, गाँवों की ढेरों लोककथाएं।
हरा पेड़ काटना पाप माना जाता था ,बेलपत्र तोड़ते समय बेल की डाल टूट जाने पर डाँट पड़ती थी ।रात को पेड़ो पे चढ़ना और कुछ भी तोड़ना निषेध था ,क्योंकि मान्यता अनुसार पेड़ रात को आराम करते थे ,उनके आराम में विघ्न डालना पाप होता था।
सोमवती अमावस्या को लाल पीले रंग बिरंगे परिधानों में लिपटी हुए महिलाएं पीपल की परिक्रमा करती थी ,और सावित्री अमावस्या(बरगदही) के अवसर पर बरगद की पूजा करती थी ,उसके गले लगती थी और माँगती थी अपने पति की लंबी आयु।
देवोत्थानी एकादशी को आँवला देवता हो जाता था ।
और नीम तो माँ भवानी का प्रतीक होता था ,यही पेड़ गाँव के साकार देवता हुआ करते थे।
हर गाँव में एक कुँआ होता था,जो विवाहित होता था ,जिसका विवाह गाँव के किसी बाग से होता था।
अगर दाँत टूट जाता था तो उसे गाँव के कुएँ की जगत के नीचे गाड़ते थे और उससे कहते थे, ‘पुरान दाँत लेव,नवा दाँत देव’ ,तब आरो और वाटर प्यूरिफायर का युग नही था
तब गाँव के आस पास की छोटी नदियों में निर्मल मिनरलयुक्त जल बहता था ,न कि अपवाहित मल और प्रदूषण ।
लोग बेहिचक उस जल को पी भी लेते थे ,और बीमार भी नही होते थे ।
हर नदी को गंगा कहा जाता था ,और उसकी पूजा की जाती थी ,भले ही वो हर वर्ष बाढ़ में फसल बरबाद कर देती रही हो ।
लोग जब अंधेरे मुँह सोते हुए बच्चों को छोड़कर परदेश कमाने जाते थे ,तो अपने बैलों और गायों के पैर छूकर जाते थे ,वो जानवर नही होते थे,घर के सदस्य होते थे ।
तब फोन नही होते थे ,बड़ेर/मुंडेर पर बैठकर कौवे शुभ संदेश दिया करते थे ,लोग गोबर की गौरी से सगुन पूछ लिया करते थे।
पूरे गाँव में दो चार पढ़े लिखे लोग होते थे, जो चिट्ठियां पढ़ने और लिखने का काम किया करते थे , मगर गैर पढ़े लिखे मौसम विज्ञानी और शोधार्थी कई होते थे ,जो घाघ-भड्डरी के सिद्धांतों का अनुपालन करते हुए मौसम की भविष्यवाणी कर दिया करते थे ,फसलों की उपज का पुर्वानुमान और लौटते हुए क्रौंच पक्षियों को देखकर वर्षा के अंत की भविष्यवाणी कर देते थे।
लोगों का पार्यावरण दिवस मनाने का कोई ज्ञान नही था ,उन्हें पता था प्रकृति उनसे नही है, वो प्रकृति से हैं । प्रकृति उनकी रक्षा करती थी ,न कि वो प्रकृति की रक्षा करते थे ।
साल के बारहो महीने पार्यावरण के थे , पार्यावरण के लिए कोई एक दिन नही था ।
मुझे गर्व है कि मैं ठेठ गाँव से हूँ ,जो पढ़े लिखे लोगों के लिए पिछड़ा होगा ,मगर अब भी प्रकृति से जुड़ा हुआ है ।
सभ्य ,शहरी लोगों को अनोखे इकलौते पार्यावरण दिवस की हार्दिक मंगलकामनाएँ !
—————- डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी ‘गंजरहा’