सांप्रदायिक सद्भावना के प्रेरक: संत कबीर
वर्तमान परिदृश्य में जहाँ देश की संस्कृति में धर्म, जाति, वर्ग के बीच तत्कालीन समाज उपेक्षित हो रहा था। इससे पूर्व भारत देश की संस्कृति परंपरा में रचे-बसे सदैव ही संत पुरुष अपनी आदर्शवादिता, न्याय, त्याग एवं गौरव गाथाओं से संसार में कीर्तिमान स्थापित करते रहे। भारत की संस्कृति में सभी धर्मों,वर्गों के लोग समाहित है, लेकिन समय उपरांत हमारे देश में कुछ विदेशी शासकों के आगमन से प्रेम,भाईचारा, सद्भावना धीरे-धीरे समाप्ति की ओर बढ़ने लगी। उस समय संत पुरुष कबीर युग दृष्टा के रूप में समाज में अवतरित हुए।
फक्कड़ व्यक्तित्व के घनी समाज सुधारक संत कबीरदास संत मत के प्रवर्तक ही नहीं, एक सच्चे मार्गदर्शक के रुप में सशक्त और क्रांतिकारी कवि के रूप में दिखाई दिए। कबीर ने स्वयं अपनी वाणी को लिपिबद्ध नहीं किया, बल्कि उनके शिष्यों ने कुछ को लिपिबद्ध किया और कुछ लोककथाओं में जीवित रहते हुए अपना स्वरूप बदलती रही। कबीर ने स्पष्ट कहा-
‘मसि कागद छुओं नहिं,कलम गहयीं नहिं हाथ’
संत पुरुष कबीर युग दृष्टा के रूप में समाज के सदैव ही प्रेरक पुरुष रहे। जब हिंदू मुस्लिम दो जातियाँ में अपने-अपने आचार-विचार, रीति रिवाज, सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताओं आदि के विषय में दृढ़ता एवं कट्टरता विद्यमान थी। उस समय कोई भी किसी से समझौता करने को तैयार न था। उस समय हिंदू धर्म और इस्लाम धर्म के ठेकेदार भोली-भाली जनता को गुमराह कर अनेकानेक पाखंड, अंधविश्वास एवं मिथ्या आडम्बरों में फँसाये रखते थे। इस संकीर्ण विचारधाराओं के कारण समाज का संतुलन बिगड़ रहा था। समाज में कुरीतियों एवं कुप्रथाओं के साथ धार्मिक, सामाजिक विषमता और रूढ़िवादी विचारधारा तेजी से पनप रही थी। उस समय ऐसे धर्म प्रवर्तक गुरु की आवश्यकता थी, जो दोनों धर्मों की बुराइयों को दूर कर समरसता का भाव उत्पन्न कर सके। उस समय हिंदू धर्म एवं हिंदू समाज संबंधी परम्पराएं प्रचलित थी, हिंदू जनता पौराणिक आचार विचारों के माध्यम से पूजा-पाठ, यज्ञानुष्ठान, कर्मकांड आदि में लीन रहती थी। इसमें कर्मकांड तीर्थाटन, व्रत, उपवास, वेदाध्यान आदि के द्वारा पंडित एवं कर्मकांडी ब्राह्मण अपने यजमानों को ठगते तथा अशिक्षित, अल्पशिक्षित जनता को धर्म की आड़ में प्रताड़ित करते थे। संत कबीर ने सभी मताविलम्बियों की विभिन्न क्रियाओं एवं उपासना पद्धतियों के कुकृत्यों का पर्दाफाश करने के साथ सभी साधु सन्यासी, ऋषि-मुनि आदि के आडम्बरों का विरोध किया। कबीर ने ‘पाहन पूजे हरि मिलै तो मैं पूजूं पहार’ कहकर मूर्ति पूजा का विरोध किया। वहीं दूसरी ओर मुस्लिमों के लिए ‘दिनभर रोजा धरत हो, रात हनत हो गाय’ कहकर इनके रोजे का मजाक उड़ाया है। कबीर केवल कटु आलोचक ही नहीं बल्कि एक सच्चे समाज सुधारक रहे। कबीर ने जो कुछ कहा, निष्पक्ष होकर कहा है और
‘अरे इन दोऊ राह न पाई’ कहकर दोनों ही मिथ्या मार्ग-गामियों को ठीक राह पर लाने का प्रयास किया है।
भूला भरमि परै जिनि कोई, कोई हिन्दू तुरूक झूठ कुल बोई’
कहकर हिंदू-मुसलमान दोनों की एकता स्थापित की। अतः कबीर ने संपूर्ण समाज में वैमनस्य का विरोध करके उसमें साम्य भाव स्थापित करने का प्रयास किया, तथा तत्कालीन समाज एवं धर्मों की तीक्ष्ण एवं कटु आलोचना करके जनता को सत्यमार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। कबीर की यही सम्यक दृष्टि उनको सार्वभौमिक बना देती है।
‘सुर नर मुनी निरंजन देवा, सब मिल कीन्ह एक बंधना
आप बँधे औरन को बाँधे, भवसागर का कीन्ह पयाना’।
उन्होंने वेद कुरान आदि को बिल्कुल हटाने के विषय में कभी नहीं कहा।
‘वेद कितेब कहो मत झूठे, झूठा जो न विचारे उपासना के बाह्म पक्ष की रूढ़िवादिता का विरोध’
कबीर ने समाज में सद्भावना के लिए देश तथा दोनों जातियों पर बड़ा उपकार किया है। कबीर ऐसे ही मिलनसार केंद्र बिंदु थे, जहां से एक और हिंदुत्व निकल जाता है और वहीं दूसरी ओर मुसलमानत्त्व, जहां एक ओर ज्ञान निकल जाता है, वहीं दूसरी ओर अशिक्षा जहाँ एक ओर निर्गुण भावना, वहीं दूसरी ओर सगुण साधना के प्रशस्त मार्ग पर सदैव वीर योद्धा की भाति खड़े रहे।
कबीर की प्रमुख रचना “रमैनी” ईश्वर संबंधी शरीर एवं आत्मा उद्धार संबंधी विचारों का संग्रह है। इसके माध्यम से कबीर का तत्कालीन समाज अंधकार, कुरीतियों व बाह्यय आडम्बर और रूढ़ियों में बंधा था। कबीर ने अपनी वाणी से इसे दूर करने का प्रयत्न किया। कबीर ने निर्भीक, नि:शंक एवं सत्यवादी होकर इन सामाजिक कलंक को समाप्त करने का संकल्प लिया। उन्होंने समरसता की भावना से भेदभाव की कुरीति को समाज से हटाने का प्रयास कर मनुष्यता का संदेश दिया है।वे राम-रहीम या अल्लाह आदि के फेर में पड़कर परमतत्व को स्वीकार करते है।
— डॉ. पूर्णिमा अग्रवाल