कम्युनिज़्म और इस्लाम
एक समय था, जब कम्युनिज़्म ने विश्व के एक बड़े भूभाग पर आधिपत्य जमा रखा था। सोवियत रुस के नेतृत्व में इस विचारधारा ने पूर्वी यूरोप, एशिया और अमेरिका के कई देशों में अपनी सरकारें बना ली थी। इस विचारधारा का प्रसार वैचारिक आदान-प्रदान से कम और बन्दूक की नोक पर अधिक हुआ था। इसको माननेवाले कार्ल मार्क्स को अपना मसीहा और लाल किताब को अपना धर्मग्रन्थ मानते थे। वे लोग वैचारिक मतभेद रखनेवाले दूसरे लोगों को बर्दाश्त नहीं करते थे। कम्युनिज़्म के नाम पर लाखों हत्यायें हुईं। चूंकि यह विचारधारा मानव के मूल स्वभाव और मानवता के प्रतिकूल थी, इसलिये सोवियत संघ के बिखराव के बाद विश्व से लुप्तप्राय हो गई।
कम्युनिज़्म की तरह ही इस्लाम भी सत्ता-प्राप्ति के लिये एक राजनीतिक अभियान है। कम्युनिस्ट कहते थे — दुनिया के मज़दूरो! एक हो जाओ और पूरे विश्व में कम्युनिज़्म को स्थापित कर दो। इसी तर्ज़ पर इस्लाम के अनुयायी कहते हैं — दुनिया के मुसलमानो! एक हो जाओ और पूरी दुनिया में इस्लाम को स्थापित कर दो। इसके लिये कोई भी उचित/अनुचित तरीका अपनाने की उहें पूरी छूट है। वे भी एक ही किताब और एक ही मसीहा से मार्गदर्शन पाते हैं। इस्लाम को न माननेवाले उनकी दृष्टि में काफ़िर हैं, जिन्हें समाप्त करने या इस्लाम स्वीकार कराने के लिए उन्हें यातना देना, हत्या कर देना, उनके माल-असबाब और उनकी औरतों पर कब्ज़ा कर लेना धर्मसंगत है। इसी आधार पर तलवार की धार के बल पर इस्लाम का विस्तार हुआ। यही कारण है कि इस्लामी जगत में इस्लामी आतंकवाद का विरोध नहीं होता है और इसे ज़िहाद के नाम से ख्याति दिलाई जाती है। इस्लाम में तर्क और विचार-विमर्श की गुंजाइश नहीं है। यह धर्म नहीं, राजनीतिक अभियान है जो मानवता विरोधी होने के कारण समय के प्रवाह में प्राकृतिक न्याय के अनुसार उसी गति को प्राप्त होगा जिसे कम्युनिज़्म ने प्राप्त किया। अति सर्वत्र वर्जयेत।