पितृ दिवस
बिदा के वक्त,
तुम सबसे अधिक रोए थे,
मेरी हर छोटी बड़ी गलती को भूल,
सिर्फ स्नेह था तुम्हारे अश्रुओं में,
ज्यों तुम माली मैं फूल ।
तुमने नई मिट्टी में,
दिया तो मुझे लगा,
सींच अपने नेह से जड़ों संग,
पर ये क्या???
में तो तुम्हें ढूंढती हूँ अब तलक !
खाद, पानी, धूप,
सब कुछ मिलता है मुझे
पर तुम्हारे हाथों का नेह
विस्मृत नहीं होता !
वह रिक्तता तो कभी नहीं भरेगी,
पर एक उपाय मैंने ढूंढ लिया है,
अब मैंने तुम्हें पिरो लिया है,
शब्दों में,अपनी लेखनी में,
औे भावों में सजा लिया है,
फिर बिखेर लिया है पन्नो पर,
जहाँ मैं तुम्हारे अक्स को,
रोज देखती हूँ ।
— भावना अरोड़ा ‘मिलन’