हास्य लघुकथा -` एक दो तीन चार
मेरे दफ्तर के एक सहयोगी पटना जं. रेलवे स्टेशन पर मिल गए। उनके अब तक ग्यारह संस्करण धरती पर प्रकट हो चुके थे। बारहवें की तैयारी भी उन्होंने पूरी कर ली थी। वे अपनी बेगम और पूरी पलटन के साथ कहीं बाहर जा रहे थे। गाड़ी में चढ़ने से पहले उन्होंने तसल्ली के लिए गिनती शुरू की।
“एक, दो, तीन, चार….दस…! अरे, ग्यारहवां कहां रह गया।” खोजबीन शुरू हुई, मगर सब व्यर्थ। मैंने भी प्लेटफार्म पर इधर-उधर ढूंढा, पर ग्यारहवेें का कहीं अता-पता नहीं चला। अंत में उन्होंने यात्रा स्थगित कर दी और घर लौटने लगे। पुलिस में रिपोर्ट वगैैैरह लिखवाने में मदद के लिए उन्होंने मुझे भी साथ ले लिया। दरवाजा खोलकर जब वे अंदर आएन तब देेेखा कि छोटे मियां तो घर में ही छूट गए थे।
मामला तो सुलझ गया परन्तु मैं सोचने लगा कि पत्नियों को बच्चा पैदा करने वाली मशीन समझने लोगों के घरों में पहले बच्चे ने माँ का दूध जी भर कर पिया नहीं कि दूसरा तैयार हो जाता है। फिर तीसरा…और चौथा बच्चा होने तक तो माँ के दूध का स्टाक खत्म हो जाता है। बाद वाले बच्चे माँ के सूखे सीने से दूध नहीं बल्कि खून चूसते हैं। ऐसे में इन बच्चों के यौवन की इमारत कितनी मजबूत होगी यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
मैंने उनसे कहा- “चलिए भाईजान, बच्चा तो मिल गया, अब इजाजत दीजिए।” उन्होंने शुक्रिया अदा किया। मैं ज्योंहि उनके घर से बाहर निकला, सामने दीवार पर इश्तहार देखकर मुस्कुरा उठा। लिखा हुआ था-
“छोटा परिवार-सुखी परिवार”
— विनोद प्रसाद