लघुकथा : वर्दी
अगस्त माह की पंद्रह तारीख थी। सुबह का समय था। ध्वजारोहण के पश्चात प्रभातफेरी के लिए मैं बच्चों को कतारबद्ध खड़े होने के लिए कह रहा था। तभी स्कूल के सामने एक जीप आकर रुकी। मैंने अपनी आँख उठाई। देखा। रोड किनारे एस. पी. की गाड़ी थी। गाड़ी से उतर कर एक सी. आई. एस. एफ. वर्दीधारी नवयुवक आया। ठीक से मैंने उसका चेहरा नहीं देखा। मेरे पैर छूने वह झुक रहा था। यद्यपि मैं पहचान नहीं पाया, फिर भी मैंने उसे तुरंत सीने से लगा लिया। मैं उसे कुछ कहता, इससे पहले ही वह कहने लगा- “मैं प्रीतम देवहारी हूँ । आप साहू सर जी हैं। आपने मुझे हाईस्कूल में हिंदी पढ़ाया है सर। फिर ऐसी थोड़ी-बहुत बातें हुई। गाड़ी का सायरन बजते ही वह चला गया।
रात को मेरा मोबाईल घनघनाया। रिसीव किया। आवाज आई- “सर, मैं प्रीतम देवहारी बोल रहा हूँ। सर, प्लीज़ आप बताइएगा कि आपने मुझे अपना पैर छूने क्यों नहीं दिया।”
मैंने कहा- “बेटा, तू उस समय वर्दी में था। वह वर्दी तो तुम्हारी अपनी नहीं है। वह देश की वर्दी है। तुम्हें सौंपी गयी है वह वर्दी। वर्दीधारी सिर्फ देश के लिए है, देश के ही समक्ष झुकना चाहिए। राष्ट्र की आन है; शान है वर्दी। वर्दी का सम्मान व मुल्क़ की हिफाज़त का भार तुम्हारे कंधे पर है। इसलिए…।”
“…पर सर जी, आप तो मेरे अध्यापक रहे हैं, इसलिए मैं आपका पैर छू रहा था।” प्रीतम बोला।
“यह तो तुम समझ रहे थे न कि मैं तुम्हारा एक शिक्षक रहा हूँ; पर मैं एक सामान्य व्यक्ति खड़ा था न उस समय। तुम तो देश के एक विशेष व्यक्ति थे। इसलिए एक विशेष का सामान्य के आगे झुकना अच्छी बात नहीं है; और वो भी जश़्ने-आज़ादी के दिन; नहीं…। पर ध्यान रहे, सामान्य हो या विशेष व्यक्ति हो, या कोई भी हो, वह सिर्फ देश के लिए ही होता है, देश उनके लिए नहीं होता।”
“जी..जी… ” करते हुए प्रीतम मेरी बात सुन रहा था। मैंने अपनी बात का अंत करना चाहा- “ठीक है प्रीतम ! मैं अहमद नगर के सरदार भगत सिंह चौंक के क्रिश्चियन कॉलोनी में रहता हूँ। आओ एकाध दिन। मुझे दंडवत प्रणाम करना बेटा।” मेरी हँसी वाली आवाज सुन प्रीतम ने चुटकी ली- “सर जी, मैं पाँच सितंबर को आऊँगा आपके यहाँ। कहीं मत जाइएगा। उस दिन सिर्फ आपका पैर छूना ही होगा। जयहिंद सर जी !”
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”