गीतिका
बस जोड़ने मे सारा जीवन गुजर गया है ।
हिस्से में मेरे अब तक केवल सिफ़र गया है।
हलचल है हर तरफ मैं गोधूलि की तरह हूँ,
कुछ देर पहले छूकर,मुझे दोपहर गया है ।
थे स्वप्न काँच के सब, कब तक सम्हाल पाता?
ठोकर थी वक्त की ,अब सब कुछ बिखर गया है।
हर ओर आँधियाँ हैं, मैं ठूँठ पेड़ जैसे ,
कुछ इस तरह से जीवन मेरा ठहर गया है ।
रस्ते हुए जो लंबे तो काफिले भी टूटे,
कोई इधर गया है, कोई उधर गया है ।
गमलों की वाहवाही न सह सका,’गंजरहा’!
वो मोड़ वाला बूढ़ा बरगद भी मर गया है ।
—————-© डॉ. दिवाकर त्रिपाठी ‘गंजरहा’