गीतिका
नम आँखे हैं ,सूना मन है, क्या मैं अपना हाल सुनाऊँ ?
जीने से अब ऊब गया मन,डर लगता है मर न जाऊँ।
जिस दिन से चलना सीखा है, रक्तबीज हो गए रास्ते ,
लक्ष्य सभी ठहराव क्षणिक थे ,ठगा गया मैं किसे बताऊँ?
सपनों की समिधाएँ जलती है, साँसो की आहुति लेकर,
मृगतृष्णा का अनुष्ठान यह, कैसे इसको पूर्ण कराऊँ ?
सूना है इस मन का उपवन ,कोयल, भौरें चले गये हैं ,
मैं काँटो से घिरा हुआ हूँ, कैसे फिर मधुमास मनाऊँ ?
हर क्षण व्याकुलता बढ़ती है ,बिन पानी के मछली जैसे,
घुटन भरी है आस पास ,मैं झूठ मूठ कैसे मुस्काऊँ ?
———- © डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी