गीतिका
जलते हुए सपनों का धुआँ, घोंट रहा दम ।
मंजिल कहाँ है ? रास्तों में खो गये हैं हम ।
क्या लेके आये थे यहाँ, क्या साथ जायेगा ?
मस्ती में जिओ शान से,किस बात का है गम ?
साँपों ने जहर आदमी से कर्ज मे लिया ,
हैं साँप आस्तीन के,साँपो से भी अधम।
सच किस तरह कलम कहे, बतलाइये जरा,
क्या होगा अगर सर किसी ने कर दिया कलम ?
गलियाँ है सियासत की,हर ओर जफा है,
कुर्सी मिली तो हो गये,पत्थर के वो सनम ।
दुनिया है गाफिलों की एक भीड़ ‘गंजरहा’,
बस मौत ही है तोड़ती ,जीवन के सब भरम।
—————–© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी