ग़ज़ल
जब खुदा होने का इक बुत को गुमाँ होता है
हार और जीत का अहसास कहाँ होता है
पालकी प्यार की पलकों में अचानक ठहरे
जब भी बचपन का कोई दर्द जवाँ होता है
मन को परतों को हटाकर वो कुछ ऐसे उभरा
जैसे सूरज कोई बदली से अयाँ होता है
वहीं जन्नत है वहीं स्वर्ग वहीं मोक्ष का धाम
जिक्र श्रद्धा से तेरा जब भी जहाँ होता है
खुद को लेकर वो फकत ‘शान्त’ है माना मगर
जर्रे जर्रे से उसी का तो बयाँ होता है
— देवकी नन्दन ‘शान्त’