फैशनेबल
“दीदी, मुझे घर में ले लो। देव मूर्ति के सामने विवाह कर इन्होंने मुझे पत्नी का दर्जा दिया है।”
“मूढ़मति समझा है मुझे? निकल जा, वरना मेरे दोनों बेटे तेरी जूतियों से सेवा करेंगे।”
“दी, अभी संसार ने कजन्स डे मनाया है। मेरे साथ इतना बुरा सलूक! थकी मुर्झाई सी रहती हो, घर में ले लो। खूब सेवा करूँगी।”
“नजरों से दूर हो मुँहझौंसी। दो जवान बेटे और बहुएँ हैं, मेरी सेवा करने के लिए।”
“ऐसा न कहो दी! तुम्हारा पति ही मेरे पीछे आया था, वरना मैं क्यों शादी करती।”
“झूठ न बोल मुई! फटीचर घर की तू, अपने लटके-झटके, लाली-पाउडर, और प्रेम कविताओं के जाल में उन्हें क्यों फाँसा, छुपा नहीं है।
“ऐसा नहीं है दी! तुम्हारा कवि ह्रदय पति खुद ब खुद मेरी ओर खिंचता चला आया। तुम उसे समय कहाँ देती हो, जब देखो घर गृहस्थी, नाती पोते। अस्तव्यस्त पहनावा, न साज न सज्जा। देखो जरा अपनी ओर, कैसी दिखती हो?”
“जानती हूँ! बुढ़िया हो रही हूँ तो बुढ़िया जैसी ही दिखती हूँ। आम भारतीय नारी के लिए चमक-दमक, साज सज्जा से अधिक महत्वपूर्ण है, घर की सुदृढ़ व्यवस्था, पकवानों से गमकती रसोई, हँसते खेलते बच्चे और खुशहाल परिवार, बुजुर्गों की सेवा।”
“मैं भी हाथ बँटाऊँगी दी! दहलीज के अंदर तो आने दो!”
“तू तो रहने दे, जा मेरे बुड्ढे की सेवा कर। जाते-जाते सुनती जा, मेरे ससुर जी ने अपने सपूत के लक्षण देखकर सारी संपत्ति मेरे और मेरे बेटों-बहुओं के नाम कर दी है। दहलीज लाँघने का सपना छोड़, किसी सरकारी जमीन पर झोपड़ी डाल और मेरे बेरोजगार बुड्ढे के प्रेम कविताओं से अपना पेट भर। अधिक वक्त नहीं लगेगा तेरे जैसी युवा फैशनेबल चिड़िया जल्दी ही कोई दूसरा डाल खोजने लगेगी और बुड्ढा वापस आ जाएगा।”
धड़ाम से गेट बंद हो गया और वो ठगी सी खड़ी रह गई।
— नीना सिन्हा